प्राचीनकाल में देव ब्राह्मणनिंदक एक जुआरी था। वह महापापी तथा व्यभिचार आदि अन्य दुर्गुणों से भी दूषित था। एक दिन कपटपूर्वक जुए से उसने बहुत धन जीता। फिर अपने हाथों से पान का स्वस्तिकार बीड़ा बनाकर तथा गंध और माला आदि सामग्री लेकर एक वेश्या को भेंट देने के लिए उसके घर की ओर दौड़ा। रास्ते में पैर लड़खड़ाये, जमीन पर गिरा और मूर्च्छित हो गया। जब होश आया, तब उसे बड़ा खेद तथा वैराग्य हुआ। उसने अपनी सारी सामग्री बड़े शुद्ध चित्त से वहीं एक शिवलिंग को समर्पित कर दी। बस, जीवन में उसके द्वारा यह एक ही पुण्यकर्म संपन्न हुआ।
कालांतर में उसकी मृत्यु हुई। यमदूत उसे यमलोक ले गये। यमराज बोले, ‘ओ मूर्ख! तू अपने पाप के कारण बड़े-बड़े नरकों में यातना भोगने योग्य है।’ उसने कहा, ‘महाराज! यदि मेरा कोई पुण्य भी हो तो उसका विचार कर लीजिए।’ चित्रगुप्त ने कहा, ‘तुमने मरने के पूर्व थोड़ा सा गंध मात्र भगवान शंकर को अर्पित किया है। इसके फलस्वरूप तुझे तीन घड़ी तक स्वर्ग का शासन-इंद्र का सिंहासन प्राप्त होगा।’ जुआरी ने कहा, ‘तब कृपया मुझे पहले पुण्य का ही फल प्राप्त कराया जाये।’
अब यमराज की आज्ञा से उसे स्वर्ग भेज दिया गया। देवगुरु बृहस्पति ने इंद्र को समझाया कि तुम तीन घड़ी के लिए अपना सिंहासन इस जुआरी के लिए छोड़ दो। उसके बाद यहां आना। अब इंद्र के जाते ही जुआरी स्वर्ग का राजा बना। उसने सोचा कि बस अब भगवान शंकर के अतिरिक्त कोई शरण नहीं। इसलिए अनुरक्त होकर उसने अपने अधिकृत पदार्थों का दान करना आरंभ किया। महादेवजी के उस भक्त ने ऐरावत हाथी अगस्त्य जी को दे दिया। उच्चै:श्रवा अश्व विश्वामित्रजी को दे डाला। कामधेनु गाय महर्षि वसिष्ठ को दे डाली। चिंतामणि रत्न गालबजी को समर्पित किया। कल्पवृक्ष कौण्डिन्य मुनि को दे दिया। इस प्रकार जब तक तीन घड़ियां समाप्त नहीं हुईं, वह दान करता ही गया और प्राय: वहां के सारे बहुमूल्य पदार्थों को दे डाला। इस प्रकार तीन घड़ियां बीत जाने पर वह स्वर्ग से चला गया।
जब इंद्र लौटकर आये, तब अमरावती ऐश्वर्यशून्य पड़ी थी। वे बृहस्पतिजी को लेकर यमराज के पास पहुंचे और बिगड़कर बोले, ‘धर्मराज! आपने मेरा पद एक जुआरी को देकर बड़ा अनुचित कार्य किया है। उसने वहां पहुंचकर बड़ा बुरा काम किया। आप सच मानें उसने मेरे सभी रत्न ऋषियों को दान कर दिये और अमरावती सूनी सी पड़ी है।’
धर्मराज बोले, ‘आप बूढ़े हो गये, किंतु अभी तक आपकी राज्य विषयक आसक्ति दूर नहीं हुई। जुआरी का पुण्य आपके सौ यज्ञों से कहीं महान हुआ। बड़ी भारी सत्ता हस्तगत हो जाने पर जो प्रमाद में न पड़कर सत्कर्म में तत्पर होते हैं, वे ही धन्य हैं। जाइये, अगस्त्यादि ऋषियों को धन देकर या चरणों में पड़कर अपने रत्न लौटा लाइये।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर इंद्र स्वर्ग आये और इधर वही जुआरी बिना नरक भोगे ही महादानी विरोचन पुत्र बलि हुआ।
(स्कंदपुराण)