अविजीत पाठक
हर साल इस समय के आसपास जब हम महात्मा गांधी का जन्म दिवस मना रहे होते हैं, तो एक सवाल मुझे सालने लगता है ः जिस दुनिया में हम जी रहे हैं उसमें व्याप्त मानव जनित हिंसा के अनुभव को लेकर क्या कुछ किया जा सकता है? यदि हम हिंसा और अशांति की ओर बढ़ने से नहीं रुक सकते तो फिर राजघाट जाकर गांधी की मूर्ति पर हार चढ़ाने का क्या अर्थ है?
हम हिंसा करने को सामान्य समझते, यहां तक कि इसको मान्यता देते आये हैं, भले ही खुद हमें इसका खामियाजा भौतिक, अस्तित्व और सांस्कृतिक रूप से भुगतना पड़ता है। यह ठीक है कि बतौर मानव हमने क्रमिक विकास किया और तरक्की की है, दासता और सामंतवाद से मुक्ति से लेकर पूंजीवाद और आधुनिक समाजवाद की यात्रा तक। मानवाधिकारों को लेकर बढ़ती जागरूकता ने हमें अपनी रचनात्मकता में तीक्ष्णता, लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति सजगता और जातिवाद एवं पितृसत्तात्मक सरीखी दमनकारी व्यवस्था का विरोध करने का साहस करने में सहायता की है। कोई हैरानी नहीं कि आधुनिकता के युग को अक्सर स्वतंत्रता युग कहा जाता है। तथापि, इतिहास की यात्रा कभी भी सीधी रेखा में नहीं रही। हालांकि आधुनिकता ने हमें कई मायनों में समृद्ध किया है, फिर भी हम अपने वक्त की सबसे बदतर हिंसा का अनुभव कर रहे हैं – फासीवाद के आतंक से लेकर विध्वंसकारी युद्धों तक। तथ्य यह है कि हिंसा का उन्मूलन करना तो बहुत दूर, आधुनिकता ने हमें हर जगह पैठ करने या कई बार मासूम बनकर भरमाने वाला बनाया है।
इस चरम-प्रतिद्वंद्विता वाले युग की अंतर्निहित मानसिक हिंसा की तीव्रता के बारे में जरा सोचें तो इसमें सामाजिक डार्विनवाद या ‘श्रेष्ठ ही जिंदा रहता है’ का सिद्धांत सफलता का प्रतीक माना जाता है, हम अपनी ‘सफलता’ पर फूलकर कुप्पा हुए या जख्मी अहंकार वाले योद्धा बनकर रह गए हैं। अहंकार का बोझ यानी यह मान लेना कि मेरे पास फलां बड़ी डिग्री है, मेरी कमाई और संपत्ति इतनी है या फिर मैं जो चाहूं खरीद या पा सकता हूं, परस्पर लेन-देन, हमदर्दी और संवाद को नकारता है। ऐसा माहौल जिसमें हर कोई प्रतिद्वंद्वी है, जिसे हर हीले-हवाले हराना है, वहां शांति, प्यार या संयम से बात सुनने की कला कैसे हो सकती है? स्कूल से लेकर यूनिवर्सिटी या कार्यस्थल में हम दिखावा, आक्रामकता और अहंकार करने की कला सीख रहे हैं। तुर्श होना, किसी भी तरीके से आगे बढ़ना, दूसरों को हराना, सदा बेचैन रहना, भागते रहना और मिथकीय सफलता के पीछे दौड़ना! यह एकल आयामीय वजूद और कुछ नहीं केवल हिंसा का एक रूप है।
बिना शक यह मानसिक हिंसा उस विद्रूपता से जुड़ी है जो आधुनिक तकनीक-पूंजीवाद ने हमें बना डाला है। अब हम सब कीमत का फीता लगी बिकाऊ वस्तु भर हैं, हम अपने यंत्रवत और सामरिक संबंधों से परे देख नहीं पाते। हर चीज़ यहां बतौर स्रोत इस्तेमाल करने के लिए है, यहां तक कि दोस्त भी एक स्रोत भर है। जहां जलवायु संकट इस तकनीक-पूंजीवाद या प्राकृतिक स्रोतों के अंधाधुंध इस्तेमाल का तार्किक परिणाम है वहीं व्यक्ति इस चूहा-दौड़ की कीमत निरंतर बढ़ते एकाकीपन या अंदरूनी तन्हाई से चुका रहा है। जहां कहीं देखो अंधकार पसरा हुआ है, शहरों की झुग्गी-झोंपड़ी वाली तंग बस्तियों में निपट हिंसा का नाच होता है वहीं गेटों के पीछे सुरक्षित शानदार कालोनियों में, क्लब हाउस और स्विमिंग पूल जैसी सुविधाओं से लैस होने के बावजूद, व्यक्ति लोगों के रेले में तन्हा पड़ता जा रहा है और आध्यात्मिक रूप से खोखला। पैसे का प्रवाह जारी है किंतु रिश्तों का स्रोत सूख रहा है।
हमारे समय में ‘तेज होने’ का महिमामंडन हो रहा है। कारें एक्सप्रेस-वे पर और अधिक गति में दौड़ रही हैं, हमारे बच्चे लगातार भाग रहे हैं – स्कूल से लेकर कोचिंग केंद्रों तक, समय बचाने के वास्ते बने तमाम यंत्रों की लोकप्रियता के बावजूद, हम में किसी के पास अपने बीमार रिश्तेदार या मित्र का हाल पूछने या सेवा-टहल करने का वक्त नहीं है या चांद की सुंदरता निहारने या तैरते बादलों का नज़ारा लेने की फुर्सत नहीं है। इस भागमभाग के कोलाहल ने मानव के निजी वजूद और उन्नयन के लिए जिस शांत चित्त की जरूरत है, उसको छिन्न-भिन्न कर दिया हैndash; जैसे कि शांति, सन्नाटा और गहरा आत्म संवाद।
विडंबना यह कि धार्मिक मंच भी लगातार हिंसक होते जा रहे हैं। धर्मनिरपेक्षता के अलम्बरदार खुद परमानंद और आध्यात्मिक आयाम खोते जा रहे हैं। जहां एक विचारधारा ने धर्म को एक विघटनकारी राजनीति का औजार बना डाला है वहीं बेहूदा और पितृसत्तात्मक रूढ़िवादियों ने आध्यात्मिक मुक्ति-बोध की संभावना को मार डाला है। अब नये जमाने का निरंतर तरक्की कर रहा ‘गुरु-निर्माता’ उद्योग अपनी चमक-दमक, ब्रांडिंग से ध्यान की विभिन्न तकनीकें बेचने का जरिया है। एक राजनीतिक औजार होने से लेकर बाजार में बिकने वाली वस्तु की तरह धर्म आपसी प्यार और रिश्ते मजबूत करने के अतंर्निहित गुणों वाली धार्मिकता से विहीन होता जा रहा है। एक तरह से, यह कहना गलत न होगा कि जिस संसार में हम जी रहे हैं उसकी पहचान के चिन्ह अब यंत्रवत राजनीति, धार्मिक कट्टरवाद, तकनीक का दबदबा, हर वक्त निगरानी करने वाली व्यवस्था, आसक्त करने वाला उपभोक्तावाद, युद्ध और सैन्यवाद हैं। यह एक भयावह हिंसक जगत है।
क्या गांधी को सुनने वाले कोई बाकी है? गांधी की अहिंसा या सत्याग्रह केवल औपनिवेशिक साम्राज्य का विरोध करने का तरीका भर नहीं थे, न ही यह सामरिक क्रिया मात्र थी। वे हमें शांतिपूर्ण और अहिंसक सामाजिक व्यवस्था के लिए नूतन आत्मबल, संग्रहण-प्रवृत्ति का परित्याग या मितव्ययिता अपनाने, सर्वोदय और दूसरों की परवाह करने की महत्ता का अहसास दिलाना चाहते थे। गांधी की धार्मिकताndash; जो कि निष्काम कर्म और प्रेम से वश में करने वाली शक्ति का रचनात्मक सम्मिश्रण हैndash; उसने उन्हें राजनीति और आध्यात्मिकता के बीच सेतु बनाने में सहायता की। शायद, जिस युग में हम जी रहे हैं वह गांधी को गंभीरता से नहीं लेता। इसने उन्हें केवल एक मूर्ति में बदल डाला है।
तथापि जैसे कि बौद्ध भिक्षु थिच न्हाट हानः कहा करते थे : ‘आप गांधी या मार्टिन लूथर किंग जूनियर के विचार को नहीं मार सकते’। उन्होंने प्रेम, संवाद और परस्पर सौहार्द्र बनाने का आह्वान किया है। यह दुनिया जो कि बाजारवाद, उपभोक्तावाद के व्यवहार से त्रस्त है, हम में कुछ नेndash; शांतिप्रिय और पर्यावरणवादी, अध्ययन-अध्यापन से जुड़े, सहकार समाजवाद और अध्यात्म की चाह रखने वालेndash; एक मानवीय, पर्यावरणीय मित्र, समानाधिकारवादी और शांतिपूर्ण विश्व की चाहना का सपना खोया नहीं है। शायद इस राजनीतिक-आध्यात्मिक यात्रा की प्रक्रिया में हम गांधी की आत्मा को जीवित रख पायें।
लेखक समाजशास्त्री हैं।