कलराज मिश्र
बाबा साहेब अम्बेडकर के चिन्तन और उनकी उदात्त दृष्टि पर जब भी मन जाता है, सामाजिक जनतंत्र के लिए किए उनके कार्य ज़हन में कौंधने लगते हैं। संविधान सभा की आखिरी बैठक जब हुई तो बाबा साहेब अम्बेडकर ने सामाजिक जनतंत्र को ही केन्द्र में रखते अपना उद्बोधन दिया था। उनका कहना था कि जाति प्रथा और लोकतंत्र साथ-साथ नहीं रह सकते। इसीलिए भारतीय संविधान में ऐसे नियमों की पहल हुई, जिनमें देश में किसी भी हिस्से मंे रहने वाले नागरिकों के लिए जातीय और भाषायी आधार पर कोई भेदभाव नहीं हो।
संविधान सभा में प्रारूप के प्रावधानों और उनके औचित्य को सिद्ध करने का मुख्य कार्य डॉ. अम्बेडकर और अन्य ‘प्रारूप समिति’ सदस्यों पर ही था। अपने सहयोगियों के साथ मिलकर संविधान का जो प्रारूप उन्होंने बनाया, उसमें देश की परम्पराओं, आस्था और विश्वास को एक तरह से उन्होंने स्वर दिया। मूल बात यही थी कि प्रथमतः देश के सभी नागरिक भारतीय हैं और बाद में उनकी कोई और पहचान।
संविधान सभा में डॉ. अम्बेडकर के वक्तव्यों में राजनीति, कानून, इतिहास, दर्शन का अपूर्व संगम है। किसी एक जाति नहीं, सभी का समानता का भाव है। नवम्बर, 1948 में संविधान के प्रारूप पर विचार करने के लिए उन्होंने अपना प्रस्ताव रखते हुए कहा था कि हमने भारत वर्ष को राज्यों का संघ नहीं बल्कि एक संघ राज्य कहा है। डॉ. अम्बेडकर भारत में सामाजिक भेदभाव से चिंतित थे। इसीलिए उन्होंने कहा कि लोकशाही को हम बनाना चाहते हैं तो हमें अपनी राह के रोड़ों को पहचानना ही होगा क्योंकि जनतंत्र में जनता की निष्ठा की नींव पर ही संविधान का भव्य महल खड़ा हो सकता है।
लगता है, डॉ. अम्बेडकर के विचार वास्तविक रूप में उस राष्ट्रवाद से ही जुड़े हैं, जिनमें व्यक्ति और व्यक्तियों के बीच जाति, वर्ण और धर्म में किसी तरह का कोई भेद नहीं है। देश का हर नागरिक सिद्धान्तः समान है। राष्ट्र निर्माण के लिए उन्होंने भूमि, वहां के समाज और श्रेष्ठ परम्पराओं को महत्व देते हुए बल दिया कि राष्ट्र कोई भौतिक इकाई नहीं है। राष्ट्र भूतकालीन लोगों द्वारा किए गए सतत प्रयासों, त्याग और देशभक्ति का परिणाम है। उन्होंने राष्ट्र को जीवन्त बताते हुए कहा भी कि राष्ट्रीयता सामाजिक चेतना है और इसी से व्यक्ति एक-दूसरे के निकट आता है। बंधुता की भावना इसी से विकसित होती है। इसमें संकीर्णता के विचार सबसे बड़ी बाधा है। उन्होंने कहा कि मैं चाहता हूं कि भारत के सभी लोग अपने आपको केवल भारतीय समझें।
बतौर भारतीय संविधान शिल्पी डॉ. अम्बेडकर ने फ्रेंच रिवोल्यूशन से तीन शब्द लिए। लिबर्टी, इक्वलिटी और फैटर्निटी। संविधान के मूल में सम्मिलित इन शब्दों ने उनके राजनीतिक और सामाजिक जीवन दर्शन को भी गहरे से प्रभावित किया। इसीलिए संविधान के मूल अधिकारों में अनुच्छेद 14 से 18 के माध्यम से समानता के अधिकार की व्याख्या है। इसी संबंध में संविधान के अनुच्छेद 19 से 22 के माध्यम से स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है और अनुच्छेद 23 और 24 में शोषण के विरुद्ध अधिकार दिया गया है। महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि अनुच्छेद 19 (2) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में भी किसी भी जाति, वर्ग या समुदाय के विरुद्ध अनर्गल अभिव्यक्ति को बाधित किया गया है। संविधान के अंतर्गत इसमें किसी भी तरह देश की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता को नुकसान नहीं होना चाहिए। इन तीन चीजों के संरक्षण के लिए अगर कोई कानून है या बन रहा है, तो उसमें भी बाधा नहीं आनी चाहिए। अनुच्छेद 25 से 28 के माध्यम से भारतीय संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है।
डॉ. अम्बेडकर ने लगभग सभी क्षेत्रों में मौलिक दृष्टि रखते अपने आपको आगे बढ़ाया। महिला शिक्षा से जुड़े उनके चिंतन पर जाएंगे तो यह भी लगेगा कि महिलाओं को नौकरियों में आरक्षण की पहल के वह एक तरह से पहले सूत्रधार थे। बंबई की महिला सभा को संबोधित करते हुए कभी उन्होंने कहा भी था कि ‘नारी राष्ट्र की निर्मात्री है, हर नागरिक उसकी गोद में पलकर बढ़ता है,नारी को जागृत किए बिना राष्ट्र का विकास संभव नहीं है।’ उनका दृष्टिकोण था कि कैसे समाज में सभी स्तरों पर समानता की स्थापना हो। इसीलिए उन्होंने समाज को श्रेणीविहीन और वर्णविहीन करने पर निरन्तर जोर दिया। संविधान में अनुच्छेद 370 भी उनकी इच्छा के विरुद्ध जोड़ा गया, जिसे आजादी के 72 वर्षों बाद हटाया गया है। समानता और न्याय के साथ बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय का उनका दर्शन इसीलिए आज भी प्रासंगिक है।