आचार्य हेमचंद सौराष्ट्र के एक महान विद्वान, दार्शनिक और सम्मानित राज्य कवि थे। ऐश्वर्य उनके आगे-पीछे घूमता था। सौराष्ट्र नरेश स्वयं उनकी चरण रज अपने माथे पर लगाते। परंतु आचार्य प्रवर की भावनाएं विशुद्ध सात्विक थीं। एक बार की बात है कि आचार्य हेमचंद ग्रामीण क्षेत्र में भ्रमण पर निकले। एक गांव में किसानों ने उन्हें पहचान लिया और उनकी आवभगत में लग गए। एक गरीब किसान ने बड़े संकोच से अपने घर से मोटे सूत के बने पहनने के वस्त्र आचार्य को भेंट किए। आचार्य ने वह परिधान अपने शरीर पर धारण कर लिये और अपने राजकीय वस्त्राभूषण उस किसान को दे दिये। अगले दिन आचार्य उस परिधान को पहन कर राज दरबार में पहुंचे। राजा ने ऐसे मोटे साधारण वस्त्र पहनने का कारण पूछा। आचार्य ने कहा, ‘महाराज! आपके राज्य में अधिकतर प्रजा ऐसे ही वस्त्र पहनती है। आप जो बहुमूल्य वस्त्राभूषण मुझे देते हैं, वह भी तो आम प्रजा के श्रम से प्राप्त हैं। प्रजा के परिश्रम का आनंद राज्य के थोड़े से लोग ही लेते हैं। राज्य की प्रजा की दीनता का कारण हम हैं।’ राजा को अपनी भूल का अहसास हो गया था।
प्रस्तुति : मधुसूदन शर्मा