इसे पर्यावरण सम्मेलन कॉप-27 की सफलता ही माना जाना चाहिए कि क्लाइमेंट चेंज के प्रभावों से जूझ रहे देशों की मदद के लिये अमीर देश मुआवजा देने को राजी हुए हैं। इस सम्मेलन में दो सौ देशों में हुए समझौते से तीन दशक पुरानी वह मांग पूरी हुई, जिसमें विकसित देशों के कार्बन उत्सर्जन की तपिश से झुलस रहे विकासशील देशों को आर्थिक सहायता देने की बात शामिल थी। निस्संदेह, भारत जो दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग से सबसे ज्यादा प्रभावित देशों में तीसरे स्थान पर है, उसे भी इस मुआवजे का लाभ मिल सकेगा। यह समझौता 14 दिन चली बहस के बाद अस्तित्व में आया है। जिसमें निर्णय हुआ है कि अमीर देश एक कोष बनाएंगे, जिससे जलवायु परिवर्तन के त्रास से प्रभावित देशों में बाधित विकास को गति देने का काम किया जायेगा। कई धनी देशों द्वारा फंड बनाने के मार्ग में बाधा डालने के बावजूद विकासशील देश अपने मकसद में कामयाब हुए हैं। इन अग्रणी देशों में भारत समेत एशियाई देश, ब्राजील, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिकी देश शामिल थे। इन देशों ने यहां तक चेतावनी दे दी थी कि यदि इस फंड को लेकर सहमति नहीं बनती तो इसे सम्मेलन की विफलता माना जाना चाहिए। निस्संदेह, अफ्रीकी देश मिस्र में आयोजित सम्मेलन में यह कदम उन अफ्रीकी देशों के लिये राहतकारी साबित हो सकता है जो पिछले तीन सालों से सूखे की मार झेल रहे हैं। हालांकि, एक साल तक इस फंड के क्रियान्वयन को लेकर विचार-विमर्श होगा, लेकिन आगामी वर्षों के लिये राहतकारी रहेगा। इस मकसद के लिये बनने वाली कमेटी में 24 देशों के प्रतिनिधि शामिल होंगे। जो तय करेंगे कि फंड का उपयोग कैसे होगा, किस देश को कितना व किस आधार पर मुआवजा मिलेगा। महत्वपूर्ण यह भी कि सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन के लिये जिम्मेदार माना जाने वाला अमेरिका इस फंड के निर्माण के लिये तैयार हुआ है। यूरोपीय यूनियन भी सहमति जता चुकी है।
दरअसल, अमीर देशों ने वर्ष 2009 में जलवायु परिवर्तन से होने वाली क्षति की पूर्ति के लिये मुआवजा देने की बात स्वीकारी थी, लेकिन यह वायदा आज भी अधूरा ही है। वर्ष 2020 तक गरीब-विकासशील देशों को हर साल सौ बिलियन डॉलर देने का वायदा था। यदि घोषणा सिरे चढ़ी होती तो पूर्वी अफ्रीका में ग्लोबल वार्मिंग के चलते खाद्य संकट से जूझते पौने दो करोड़ लोगों को राहत मिलती। अब तक जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर हुई वार्ताओं में ग्रीन हाउस गैसों को कम करने व ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों से बचाव पर ही जोर रहता था, लेकिन अब ठोस राहत पर सहमति हुई है। तार्किक है कि औद्योगिकीकरण से ज्यादा फायदा उठाने वाले देश ग्लोबल वार्मिंग से प्रभावित देशों की मदद को राजी हुए हैं। इन देशों में अतिवृष्टि, सूखे, चक्रवाती तूफानों, भूस्खलन, ग्लेशियरों के पिघलने व वनों की आग की घटनाओं में तेजी आई है। ऐसे में प्रभावित उन देशों को मदद देने की मांग की जाती रही है जिनकी कार्बन उत्सर्जन में ज्यादा भूमिका नहीं रही है। इन देशों में जहां आबादी वाले इलाकों, खेतों व व्यापारिक संस्थानों को नुकसान हुआ, वहीं व्यक्तियों, सांस्कृतिक विरासत तथा जैव विविधता को भी हानि हुई। आज विशेषज्ञ लगातार अध्ययन कर रहे हैं कि मुआवजे का निर्धारण-वितरण किस आधार पर किया जाये। एक अध्ययन के मुताबिक, दुनिया के पचपन देशों की आर्थिकी को पिछले दो दशक में एक ट्रिलियन डॉलर का नुकसान हुआ है। जिसमें आने वाले वर्षों में और वृद्धि की आशंका है। दरअसल, विकासशील देशों ने अपने प्रयासों से जो भी विकास के लक्ष्य हासिल किये थे, ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों से वे निष्फल हो रहे हैं। उन पर कर्जों का दबाव बढ़ा है। सबसे अधिक प्रभावित देशों में शामिल भारत में पिछले ढाई दशक में जलवायु परिवर्तन से जुड़ी करीब 1058 आपदाओं को प्रभाव देखा गया। इस प्रभावित क्षेत्र में देश का तेरह फीसदी हिस्सा शामिल है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन की अध्ययन रिपोर्ट बताती है कि भारत को 2020 में प्राकृतिक आपदाओं की वजह से 87 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है। उम्मीद है कि इस राहत फंड के बनने से भारत को कुछ लाभ मिलेगा।