यह कैसी विडंबना है कि जिस पंजाब में हर साल सड़क हादसों में औसतन साढ़े चार हजार लोगों की जान चली जाती है, वहां दुर्घटना में घायल लोगों को तुरंत उपचार देने वाला एक भी ट्रॉमा सेंटर काम नहीं कर रहा है। कुल मिलाकर घायल लोगों को भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता है। विसंगति यह है कि तेजी से बढ़ती सड़क दुर्घटनाओं में घायलों की जिंदगी बचाने के मकसद से जिन पांच ट्रॉमा सेंटरों को बनाया गया था, वे पिछले पांच साल से काम नहीं कर रहे हैं। एक दशक पहले जालंधर, पठानकोट, खन्ना, फिरोजपुर और फाजिल्का में पांच ट्रॉमा सेंटर खोले गये थे। मकसद यही था कि किसी भी सड़क दुर्घटना में घायल को तुरंत चिकित्सा देकर उसका जीवन बचाया जाये, लेकिन विभिन्न कारणों से एक-एक करके सभी ट्रॉमा सेंटर बंद हो गये। आज उनका उपयोग अन्य उपचार कार्यों के लिये हो रहा है। दरअसल, जब तक इनको चलाने के लिये फंड केंद्र सरकार से आता रहा, तब तक ये ठीक-ठाक काम करते रहे। लेकिन जैसे ही केंद्र सरकार ने कर्मचारियों के वेतन आदि के लिये फंड देना बंद किया, ये ट्रॉमा सेंटर भी बेसुध हो गये। दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि आधुनिक भवन और नवीनतम उपकरण होने के बावजूद इनके संचालन में राज्य सरकार के अधिकारियों ने गंभीरता नहीं दिखायी। वहीं दूसरी ओर बताया जा रहा है कि इन ट्रॉमा सेंटरों में विधिवत कार्य शुरू न हो पाने की वजह यह भी रही है कि दुर्घटनाओं में सबसे पहले जरूरी उपचार देने वाले न्यूरोसर्जन इन ट्रॉमा सेंटरों में नियुक्त ही नहीं किये गये। विडंबना है कि राज्य के चिकित्सा सिस्टम में भी न्यूरोसर्जनों की भारी कमी है। ऐसे में बिना न्यूरोसर्जन के किसी ट्रॉमा सेंटर की उपयोगिता निरर्थक ही हो जाती है। इस गंभीर समस्या पर न तो चिकित्सा विभाग ने ध्यान दिया और न ही राज्य के नीति-नियंताओं ने। ऐसे में ट्रॉमा सेंटर तमाम अन्य सुविधाओं के होने के बावजूद निष्प्रभावी हो गये।
आरोप तो यह भी लगे कि इन ट्रॉमा सेंटरों की लोकेशन भी तार्किक नहीं थी। होना तो यह चाहिए कि ट्रॉमा सेंटर ऐसी जगह पर बने जहां हाइवे व अन्य मुख्य मार्गों पर हुई दुर्घटना में घायल लोगों को तुरंत पहुंचाया जाये। लेकिन इन ट्रॉमा सेंटरों की लोकेशन में भी गंभीर खामियां थीं। ट्रॉमा केयर मानकों के अनुसार चिकित्सा सुविधा राजमार्गों पर ही उपलब्ध होनी चाहिए। लेकिन पंजाब में सभी ट्रॉमा सेंटर शहरों के भीतर भीड़भाड़ वाले इलाकों में खोले गये थे। ज्यादातर को सिविल अस्पतालों के साथ खोला गया था। मरीजों को सभी चिकित्सा देने के मकसद से यह कदम उठाया गया होगा, लेकिन सड़क दुर्घटनाओं में घायलों को तो तुरंत चिकित्सा सहायता की जरूरत होती है। इन ट्रॉमा सेंटरों तक पहुंचते-पहुंचते कई जिंदगियां खत्म हो जाती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े भी बताते हैं कि सड़क दुर्घटना में घायल लोगों को यदि तुरंत मदद मिल जाये तो हर साल हजारों जिंदगियां बचाई जा सकती हैं। लेकिन इस गंभीर समस्या के प्रति हमारा चिकित्सातंत्र गंभीर नजर नहीं आता। यही वजह है कि हर साल देश में डेढ़ लाख लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि इन दुर्घटनाओं में मरने वालों की बड़ी संख्या युवाओं की है। करीब साढ़े चार लाख लोग हर साल सड़क दुर्घटनाओं में घायल होते हैं। इनमें बड़ी संख्या उन लोगों की होती है जो फिर से सामान्य जीवन नहीं जी पाते। दुखद यह है कि इन दुर्घटनाओं में मरने वाले परिवार के कमाऊ लोग होते हैं। कमाऊ परिजन की मौत से परिवार अंतहीन समस्याओं की दलदल में चला जाता है। जहां तक पंजाब में पांचों ट्रॉमा सेंटरों के बंद होने का मामला है, ये हमारे सत्ताधीशों की काहिली को भी दर्शाता है। रोज-रोज नये-नये आडंबर रचने और मुफ्त की राजनीति करने वाले नेताओं को उस सकारात्मक पहल करने का होश नहीं रहता, जिससे हजारों जिंदगियां बर्बाद हो जाती हैं। जनता की जागरूकता ही राजनेताओं पर दबाव बना सकती है।