एक बार गुरुनानक देव के पास एक अमीर घर का इकलौता बेटा आया और कहा, ‘मैं अपनी विरासत से हजारों सोने के सिक्के दान कर देता हूं, आप मुझे दीक्षित कीजिये।’ उसकी बात सुनकर गुरुनानक देव ने कहा, ‘बेटा तुम छीनना चाहते हो, प्राप्त नहीं करना चाहते।’ वह युवक हैरान होकर बोला, ‘कैसे?’ ‘वो ऐसे कि जीवन में लक्ष्य आध्यात्मिक हो या सांसारिक, अपने पुरुषार्थ से ही सिद्ध होता है। पुरुषार्थ के अलावा और दूसरा कोई माध्यम नहीं है। मंदिर में प्रतिष्ठित मूर्तियां और अलमारी में लगी हुई पुस्तकों को भी रोज देखने और पढ़ने मात्र से न तो भगवान के गुण विकसित हो पाएंगे और न ही हमारे ज्ञान में वृद्धि होगी। क्योंकि इन दोनों में ही एक बड़ी विशेषता यह है कि मूर्ति के गुण मन के अंतर तक बैठ गए तो भगवान, नहीं तो वह केवल कलाकार की एक कृति भर ही है। पुस्तकों के अक्षर मन में अंकित हों, आचरण में आएं तो पवित्र ग्रंथ, अन्यथा मात्र कागज पर व्यवस्थित रूप से फैलाई गई स्याही ही तो है।’ अब युवक समझ गया कि असली विरासत पुरखों की दौलत नहीं, अपनी मेहनत है। प्रस्तुति : पूनम पांडे