उस वर्ष दीपावली पर सिर्फ उनका घर ही नहीं बल्कि उनके मन भी जगमगा उठे थे और झपझपाती एलईडी सीरीज़ की रोशनी से कमरे का आंगन जगमगाया तो उसमें उसे साफ़ करने वाली सुकन्या का संतोषपूर्ण चेहरा भी दिखाई पड़ रहा था। रीमा ने मिठाई का डिब्बा तैयार किया और मिसेज शाह को दिखाया ‘मम्मी यह साड़ी एवं मिठाई सुकन्या के लिए है।’
‘फिर काम छोड़ गयी कामवाली ...अब कहां से ढूंढ़ कर लाऊं फिर से नयी ...घर का काम तो कोई करना ही नहीं चाहता। न तो बच्चे और न ही ये कामवालियां। शिक्षा का जोर क्या बढ़ा, आम घरों की लड़कियां एवं महिलाएं पढ़-लिखकर सुपर मार्केट, सलून एवं अन्य संस्थानों में काम करने लगी हैं। जो गृह सेविकाएं हैं वे भी जागरूक होकर अपने बच्चों को पढ़ने के लिए प्राइवेट इंग्लिश मीडियम विद्यालयों में भेजने लगी हैं। जिससे अब उनके घरों में भी बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का खर्च बढ़ने लगाहै। वे भी ज़्यादा काम पकड़ कर कम समय में ज़्यादा घरों में काम निबटाने लगीं। ताकि जब महीने की पहली तारीख आये, वे अच्छी तनख्वाह लेकर अपने घर पहुंचें। नतीजा! अब घरों में साफ-सफाई कम ही रहती है। ऊपर से उनके नखरे तो बस पूछो ही मत। उन्हें रोज चाय-नाश्ता दो, हर रविवार छुट्टी चाहिए, अगर कोई मालकिन उन्हें छुट्टी न दें तो वे नाराज़ होतीं हैं, ऊपर से तर्क भी ‘मैडम जी, हमारे भी तो बाल-बच्चे हैं , हमारा भी तो परिवार है। ज़्यादा कुछ बोलें तो काम छोड़ कर चल देतीं हैं।’
मिसेज शाह को यदि सहायिका का काम या व्यवहार पसंद न आता तो वे बगैर कोई तर्क सुने उसे काम से निकाल देतीं। सो अब उनके घर में कोई सहायिका ज़्यादा दिन तक टिक कर काम न कर पाती। इसीलिए उनकी बहु रीमाफिर से नई सहायिका की तलाश में थी। तभी एक सहायिका आई जिसका नाम था सुकन्या। देखने में तो सीधी-सादी सी लग रही थी, यदि रीमा उसे खाने को कुछ देती तो वह मना कर देती और कहती ‘घर से खाकर आई हूं, ज़्यादा खाऊंगी तो काम कैसे करूंगी?’
मिसेज शाह को वह जच गयी क्योंकि वह काम भी ठीक-ठाक कर देती थी। अभी पंद्रह दिन ही हुए थे काम करते, कि उसने दस दिन की छुट्टीमांग ली। रीमा के तो होश उड़ गये, वह मन ही मन सोचने लगी कि दीपावली के दिन करीब हैं, पूरा घर साफ-सफाई करना है और यह छुट्टी मांग रही है वह भी दस दिन, न जाने वापस काम पर आए न आए।
सो उसने पूछ ही लिया ‘दस दिन की छुट्टी किस लिए?’
सुकन्याविनती करते हुए अति विनम्र स्वर में बोली ‘मैडम मेरी बेटी की आंख का ऑपरेशन है इसलिए छुट्टी चाहिए।’
सोसायटी में यह रोज का ड्रामा था कि सहायिकाएं अनुनय-विनय कर मैडम से एडवांस या छुट्टी मांग कर अपनी तनख्वाह ले लेतीं और फिर उसके बाद काम से नदारद। अक्सर ऐसा वह तब करती थीं जब उन्हें कोई दूसरा नया काम मिलता। तब वे छुट्टी लेकर दूसरे घर में कुछ दिन काम करके देख लेतीं कि नया काम फायदेमंद है या पहले वाला। यदि नया जम जाए तो तनख्वाह तो पहले ही वे अपने कब्जे में कर चुकीं और न जमे तो पहली मैडम के पास वापस आ जातीं। लेकिन उपाय कुछ नहीं था। सो उसकी बात सुनते ही मिसेज शाह ने त्योरियां चढ़ाकर पूछा ‘क्या परेशानी है तुम्हारी बेटी की आंख में?’
अत्यंत दयनीय स्वर में वह बोली ‘मैडम जी उसे दिखाई नहीं देता है।’
‘तो क्या जन्म से ही नहीं दिखाई देता था उसे?’ मिसेज शाह ने शक के लहजे में पूछा।
‘नहीं मैडमजी, जन्म से तो दिखाई पड़ता था किंतु मेरे पति के गुजरने के बाद मुझे घर चलाने के लिए घरों में काम करने की ज़रूरत पड़ी और तब मेरी बेटी डेढ़ वर्ष की थी। सो, मैं इसे अपने साथ काम पर लेकर जाती थी। एक दिन मैं तो काम कर रही थी और यह मैडम के घर पर स्टूल पर चढ़ कर बैठ गयी। थोड़ी देर में नीचे उतरने लगी तो संतुलन न रहने से गिर पड़ी। नसीब का खेल देखिए मैडमजी, कहीं चोट नहीं आई बस थोड़ी-सी सिर में लगी और तभी से आंखों की रोशनी चली गयी। दो-दो डॉक्टरों को दिखाया तो वे बोले आंखों का ऑपरेशन करना पड़ेगा। किंतु पैसे न होने की वजह से मैं उसी समय इसका इलाज नहीं करवा पाई।’ उस बेचारी की आंखों में आंसू थे।
मिसेज शाह उसके चेहरे के भाव पढ़ने की कोशिश कर रही थीं। थोड़ा रुक कर सहायिका बोली ‘घरों में काम करके अब थोड़े रुपये जमा किए है। इसीलिए आपका काम पकड़ते ही आप से छुट्टी लेनी पड़ रही है। बस एक बार इसकाऑपरेशन हो जाए, आंखों की रोशनी आ जाए तो बाद में छुट्टियां नहीं लूंगी, बस मैडमजी इसी महीने मुझे छुट्टी चाहिए।’
मिसेज शाह कुछ पलों को मौन ही रहीं।
‘चिंता न कीजिए मैडमजी मैं दस दिन बाद वापस आ जाऊंगी, आप मेरा भरोसा करिए न।’
रीमा भी उसे शक की नज़रों से देख रही थी, मिसेज शाह मौन धारण किये रही। सुकन्या कभी रीमा की तरफ देखती तो कभी मिसेज शाह की तरफ। मिसेज शाह बगैर कुछ बोले कमरे की और बढ़ गयीं। रीमा भावशून्य हो वहां खड़ी थी। सुकन्या ने मुस्कुरा कर रीमा की तरफ देखा लेकिन रीमा तो स्वयं की फ़िक्र में पड़ चुकी थी। मन ही मन सोच रही थी ‘हे ईश्वर! मुश्किल से तो सीधी-सादी सहायिका मिली है, अब इसे कहीं न जाने देना।’
तभी मिसेज शाह कमरे से बाहर आयीं और पांच हज़ार रुपये सुकन्या के हाथ में थमाते हुए बोलीं, ‘ले रख ले, शायद बेटी के ऑपरेशन के समय काम आये।’
सुकन्या कभी रुपयों को देखती और कभी मिसेज शाह को, उसके चेहरे पर असमंजस के भाव थे।
‘अच्छा सुन दस दिन के बाद लौट आना काम पर और इन रुपयों का कोई हिसाब नहीं।’ मिसेज शाह का भारी और रौबीला स्वर तल्खीपूर्ण ही महसूस होता था। रीमा उन्हें घूर कर देख रही थी मानो कह रही हो ‘मम्मी, कैसी बेवकूफी कर रही हैं आप।’
सुकन्या ने पैसे पकड़े और मिसेज शाह के चरणों में नतमस्तक हो गयी। उसके बाद खुशी-खुशी वह अपने घर को रवाना हो गयी। आज उसके कदम रोज की अपेक्षा जल्दी-जल्दी आगे बढ़ रहे थे। उसके जाते ही रीमा ने तुनक कर मिसेज शाह से पूछा ‘मम्मी, अभी तो इसे काम करते हुए पंद्रह दिन ही हुए हैं, भगवान जाने वापस काम पर आए भी या नहीं, फिर भी आपने बगैर सोचे-समझे इसे पांच हज़ार रुपये थमा दिए और उनका भी कोई हिसाब नहीं?’
मिसेज शाह ने अपनी अनुभवी मुस्कान बिखेरते हुए रीमा की आंखों में झांक कर देखा, ‘बेटी, अभी दीपावली आने वाली है, हम हज़ारों रुपये पटाखों में, घर की सजावट व रोशनी में खर्च करेंगे। क्या उसका कोई हिसाब है? भड़ाम-भड़ूम, ठांय-ठांय, प्रदूषण! सो अलग, रोशनी करो, घर सजाओ, शगुन के लिए रोशनी वाले पटाखे भी लाओ लेकिन बहुत ज्यादा से क्या फ़ायदा। इसकी मजबूरी देख मुझे हिसाब रखना उचित न लगा। जहां हम क्षण भर की रोशनी एवं अपनी खुशी के लिए हज़ारों रुपये खर्च कर देते है वहां अगर इसकी बेटी की आंखों की रोशनी आ जाए तो वह जीवन भर देख सकेगी। फिर पांच हज़ार रुपये क्या बड़ी रकम हैं, इंसानियत भी तो कोई चीज होती है।’
रीमा मिसेज शाह की बात सुनकर चकित हो गयी और बोली ‘मम्मी आपकी सोच तो बहुत गहरी है, अब मैं समझ गयी हूं कि आप झूठ-मूठ में ही झक्की-पक्की सास बनी रहती हैं।’
सास-बहू दोनों ठहाका लगा कर हंस पड़ीं।
दस दिन के बाद सुकन्या वापस काम पर आ गयी, उसे देख रीमा के चेहरे पर मुस्कान खिल उठी और उसने राहत की सांस ली।
‘कैसी है अब तुम्हारी बेटी?’
‘अच्छी है मैडम जी’ सुकन्या की मुस्कुराहट में खुशी एवं धन्यवाद दोनों ही भाव झलक रहे थे। उसने कुछ दिनों में झटपट पूरा घर साफ-सफाई कर चमका दिया। कुछ ही दिनों में उसकी बेटी को दिखाई भी देने लगा और एक दिन वह अपनी बेटी को अपने साथ लेकर उनके घर आयी। मालूम हुआ कि सुकन्या की बेटी मिसेज शाह को धन्यवाद कहने उसके साथ आई थी।
थोड़ा झिझकते हुए वह मिसेज शाह के करीब गयी, ‘आंटी, आपने मेरी आंखों की रोशनी लाने में मदद की है, थैंकयू।’
मिसेज शाह के साथ-साथ रीमा भी अत्यंत भाव-विभोर हो उठी थी। सुकन्या के चेहरे पर संतोष के भाव उभर आये थे और उसकी मुस्कान दोगुनी हो गयी थी। सुकन्या ने धनतेरस तक लग कर उनके घर में खूब साफ़-सफाई की। घर की मुंडेर पर जब धन तेरस के दिए सजाये तो रीमा बोली, ‘मम्मी दीपावली तो हम हर वर्ष मनाते ही हैं लेकिन इस बार एक विशेष प्रकार का संतोष मन में है।’
‘हम्म..., मेरे मन में भी है, बेटी हमारे साथ रहने और काम करने वाले यदि प्रसन्न न हों तो उनके नकारात्मक भाव हमारे मन पर भी हावी होने लगते हैं। इसीलिए हमें यह ध्यान रखना जरूरी होता है कि हमारे इर्द-गिर्द सकारात्मक भावों की गंगा बहे। तुम क्या समझती हो, मैं हर महीने सलून में जा कर बाल यूं ही रंगवाती हूं?’
‘नहीं मम्मी आपको बरसों का अनुभव है।’ रीमा दीयों की झिलमिलाती लौ संग जगमगाई।
मुंडेर दोनों की बातों से चहकने लगी थी। रीमा के ससुर ने नीचे से आवाज़ लगाई ‘अरे भई! अब दोनों बातें ही करती रहोगी या धनतेरस की पूजा करने नीचे भी उतरोगी?’ नीचे आंगन में रीमा के बच्चे भी अपने पिता के संग फुलझड़ी हाथ में लिए अपनी दादी एवं मम्मी का इंतज़ार कर रहे थे।
‘मम्मी इस बार इतने से पटाखे?’ बेटे का स्वर रुआंसा था।
मिसेज शाह ने उसे जमीन चक्कर का पैक हाथ में थमाया और बोलीं ‘कम पटाखे ...कम प्रदूषण... हम हवा को दूषित नहीं करेंगे, तुम ही तो मुझे अपनी पुस्तक में पढ़ कर बताते हो कि फैक्टरियों से निकलते धुएं से वातावरण प्रदूषित होता है। इस बार हमने सुकन्या की बेटी की आंखों में रोशनी के लिए मदद की है। तुमने ध्यान दिया कि नहीं, उसने तुम्हारे कमरे के पंखे, खिड़की, जाले सब झाड़ दिए वह भी खुशी-खुशी। अब वातावरण को शुद्ध रखने की हमारी भी तो जिम्मेदारी है।’
पोते को एक पुस्तक में दादी के साथ पढ़ा हुआ याद हो आया था। वह चहक कर बोला, ‘हां दादी, मैं ने एक पुस्तक में पढ़ा था कि तमिलनाडु के कुछ गांवों में दीपावली पर पटाखे ही नहीं चलाते हैं क्योंकि वहां पास में ही एक बर्ड सेंक्चुरी है। गांव वाले नहीं चाहते कि पक्षियों को वायु एवं ध्वनि प्रदूषण से किसी प्रकार का नुकसान पहुंचे।’
‘हां बेटा, हमें जीव-जंतुओं पर भी दया एवं करुणा के भाव रखने चाहिए न, उन्हें भी तो स्वस्थ जीवन जीने का पूरा अधिकार है।’
‘हम्म...’ पोते ने गर्दन हिलाई और दादा जी के साथ जमीन चक्कर चलाने लगा। रीमा की बेटी भी फुलझड़ी हाथ में लिए उत्सुकता से जमीन चक्कर को देख रही थी।
अपने बच्चों की मुस्कुराती आंखों में रीमा को सुकन्या की बेटी की मुस्कराती छवि नज़र आ रही थी।
उस वर्ष दीपावली पर सिर्फ उनका घर ही नहीं बल्कि उनके मन भी जगमगा उठे थे और झपझपाती एलईडी सीरीज़ की रोशनी से कमरे का आंगन जगमगाया तो उसमें उसे साफ़ करने वाली सुकन्या का संतोषपूर्ण चेहरा भी दिखाई पड़ रहा था। रीमा ने मिठाई का डिब्बा तैयार किया और मिसेज शाह को दिखाया ‘मम्मी यह साड़ी एवं मिठाई सुकन्या के लिए है।’
मिसेज शाह उसे निहार कर देखती रहीं ...फिर थोड़ा सोच कर बोलीं ‘अन्न ...धन ....लक्ष्मी ...ऐसे घर में सदैव स्थिर रहते हैं।’