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भला आदमी, बुरा आदमी

कहानी
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चित्रांकन संदीप जोशी
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दफ्तर में देबू के मुझसे वरिष्ठ होने के बावजूद उम्र और अनुभव में मैं उसका वरिष्ठ हूं। उसका प्लस प्वाइंट यह है कि वह शुरू से ही यहां पदासीन है। सब उसे जानते-पहचानते हैं। बीडीओ, एसडीओ, एमएलए से लेकर यहां तक कि रूलिंग पार्टी के छोटे-बड़े नेताओं से उसके ताल्लुक हैं। सबके नंबर उसके मोबाइल में सुरक्षित हैं। देबू का सबसे बड़ा गुण यह है कि वह अच्छी तरह जानता है कि किस देवता को कौन-सा फूल चढ़ाकर उसे संतुष्ट करना है। इसीलिए सब उसको तवज्जोह देते हैं।

देबू के साथ मेरी तनातनी भयंकर रूप से लगातार बढ़ती चली गई। वह मेरा सहकर्मी है परंतु अब मैं उसे रत्तीभर भी सहन नहीं कर पा रहा हूं। शायद मैं भी उसकी आंखों में खटकने लगा हूं। असल में मैंने ही उससे उलझना शुरू किया था। वह मेरे सामने गलत करता रहे और मैं सब कुछ आंखें बंद कर देखता रहूं? ऐसा कदापि नहीं हो सकता। आखिरकार बीडीओ साहब से मैंने उसकी शिकायत कर ही दी।

साल भर ही हुआ है, मैं इस दफ्तर में स्थानांतरित होकर आया हूं। इसके लिए मुझे कई पापड़ बेलने पड़े। कइयों की मुट्ठी भी गर्म करनी पड़ी। मेरी पहली पोस्टिंग रायगंज में हुई थी। वहां मुझे दूसरी कोई असुविधा नहीं थी, बल्कि मजे में ही था। ऊपरी कमाई भी अच्छी थी। बस एक ही समस्या थी। घर से दूरी लगभग साढ़े तीन सौ किलोमीटर की थी। रोज का आना-जाना संभव नहीं था। सो, महीने में एक बार घर आने की कोशिश करता। कभी-कभी वह भी नहीं हो पाता। बेटा बहुत छोटा था तब। अभी चलना भी सीख नहीं पाया था। मिताली को बहुत परेशानी झेलनी पड़ती परंतु वह जैसे-तैसे संभाल लेती। मैं उसका कष्ट समझता था और यह सब दत्त बाबू भी जानते थे। दरअसल मैं ही उन्हें बतलाता। रायगंज दफ्तर में वे मेरे सहकर्मी और शुभचिंतक थे। स्थानीय थे, मुझसे बहुत स्नेह रखते। एक दिन बातों ही बातों में उन्होंने मुझसे कहा, ‘दीपंकर घर से दूर रहने की परेशानी मैं समझता हूं। कभी मैं भी दूर रहा करता था। तुम अपना तबादला क्यों नहीं करवा लेते?’

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‘भाई साहब, अपने घर के समीप हो पाता तो अवश्य कोशिश करता।’

‘इसके लिए तुम एक बार मुख्यालय में क्यों नहीं संपर्क करते?’

‘क्या आपका कोई परिचित है वहां?’

‘पहले तो कोई नहीं था परंतु अब है।’

इसके बाद दत्त बाबू के कहने पर उनके दूर के किसी रिश्तेदार मुखर्जी बाबू से मैंने संपर्क साधा। भले आदमी थे। वे मुझे अपने साथ बड़े साहब के कमरे में ले गए। मेरा तबादला घर के पास हो गया और वह भी छह वर्षों बाद।

घर से दफ्तर पहुंचने में अब मुझे मोटरसाइकिल पर मुश्किल से पांच मिनट लगते हैं। इतना तो पैदल भी जाया जा सकता है। फिर भी सेक्शन-ऑफिसर जो ठहरा। इसके अलावा मोटरसाइकिल घर में बेकार पड़ा खराब हो रहा था। अत: उसका सदुपयोग करने लगा।

इस दफ्तर में सबसे मेरी अच्छी बनती है। फिर भी देबू से कुछ अधिक ही मित्रता हो गई। कुछ लोगों को यह खटकने भी लगा था, जो मैं अच्छी तरह समझने लगा था। देबू भी जानता था। एक दिन तो पुराने कर्मी संजीव सूर बातों ही बातों में कह गए, ‘वाह, नये सर के साथ देबू सर की अच्छी भली मित्रता हो गई है।’ मैं तब मुस्कुराकर चुप रह गया क्योंकि मुझे विश्वास है कि कोई सहकर्मी कभी मित्र नहीं हो सकता। फिर भी एक तरह की घनिष्टता हो ही जाती है, जैसे कि रायगंज में दत्त बाबू के संग हुई थी। वे मेरे लोकल गार्जियन थे। हालांकि, यहां वैसी बात नहीं क्योंकि मेरा जन्म ही इस शहर में हुआ है। मेरी शिक्षा-दीक्षा, स्कूल कॉलेज, आत्मीय-स्वजन, बंधु-बांधव यानी कि सब अपने हैं यहां।

कुछ दिन पहले तक लोगों ने मुझे देबू के बगल में बैठकर काम करते देखा है। इसके अलावा कई बार दफ्तर के काम से हम एक दूसरे के मोटरसाइकिल पर बैठकर बाहर जाते रहे हैं परंतु ये सब अब अतीत की बातें हैं। मैं वह सब बातें भूलना चाहता हूं। शायद देबू भी सब कुछ भूल चुका है। लोगों को पहचानना इतना सहज नहीं है। मुझे सब कुछ समझने में कुछ समय लगा था। यहां आकर देखा कि देबू के इशारे के बिना कोई भी फाइल नहीं सरकती थी। जब से उसने इस दफ्तर में ज्वाइन किया है, तब से ऐसा ही होता आ रहा है।

दफ्तर में देबू के मुझसे वरिष्ठ होने के बावजूद उम्र और अनुभव में मैं उसका वरिष्ठ हूं। उसका प्लस प्वाइंट यह है कि वह शुरू से ही यहां पदासीन है। सब उसे जानते-पहचानते हैं। बीडीओ, एसडीओ, एमएलए से लेकर यहां तक कि रूलिंग पार्टी के छोटे-बड़े नेताओं से उसके ताल्लुक हैं। सबके नंबर उसके मोबाइल में सुरक्षित हैं। देबू का सबसे बड़ा गुण यह है कि वह अच्छी तरह जानता है कि किस देवता को कौन-सा फूल चढ़ाकर उसे संतुष्ट करना है। इसीलिए सब उसको तवज्जो देते हैं। स्थानीय न होने के बावजूद उसका यहां धाक जमा लेना कोई मुश्किल काम नहीं था। छोटा हो या बड़ा, हर काम के लिए लोग उसे ही आकर यहां ढूंढ़ते हैं जबकि मैं और वह दोनों एक ही पद पर कार्यरत हैं।

बहरहाल, उसके बायें हाथ की आय अच्छी-खासी है, यह उसके घर जाकर देखा जा सकता है। एक बार वह मुझे भी ले गया था। संगमरमर बिछा तीन माले का घर मुझे एक छोटे महल-सा प्रतीत हुआ। इसी बीच मेरे और देबू के बीच का मनमुटाव घर पर भी जाहिर हो गया। मैंने ही मिताली को इस बारे में बताया। उपाय भी दूसरा कोई नहीं था। मैं मानसिक रूप से जब भी अशांत होता हूं, मिताली को भनक लग जाती है। कई बार ऐसा हुआ है। पिछली बार जब देबू के साथ मेरी अच्छी-खासी झड़प हुई और उसने मुझे देख लेने की धमकी दी, उस दिन भी दफ्तर से घर लौटकर सोफे पर बैठा ही था कि मिताली बोल उठी, ‘क्या हुआ है?’

‘कुछ भी तो नहीं।’

‘फिर चेहरे पर मुर्दनी क्यों छायी हुई है?’

‘नहीं तो।’

‘मुझसे छुपाने की कोशिश न करें।’

‘कह तो रहा हूं कि कुछ भी नहीं हुआ।’

मिताली अड़ी रही तो मुझे सब कुछ बताना पड़ा। वह देबू को जानती है। कई बार हमारे घर आया है। सब सुनकर मिताली बोल उठी, ‘वाह! आप संपर्क साधने में जितने उस्ताद हैं, बिगाड़ने में भी उतने ही हैं। अभी कुछ दिन पहले कह रहे थे कि उस जैसा भला है ही नहीं कोई और आज खुद कह रहे हैं कि उस जैसा बुरा इस धरा पर कोई नहीं है।’

‘हां, कहता हूं। ठीक ही कह रहा हूं कि उस जैसा हरामखोर आज तक नहीं देखा। जानती हो, वह चाहे तो किसी की हत्या भी कर-करवा सकता है।’

‘मुझे जानने की आवश्यकता नहीं। आप जानें। जल में रहकर कोई मगरमच्छ से बैर नहीं रखता। आप क्या समझ रहे हैं, वह आपको छोड़ेगा? आप ही तो कह रहे थे कि उसके ससुर की मंत्रियों तक पहुंच है, वह भी रूलिंग पार्टी में। खामख्वाह की आफत मोल ली आपने।’

‘जो होना होगा, देखा जाएगा।’

‘आप क्या देखेंगे? भुगतना तो मुझे पड़ेगा। अभी-अभी बुबाई (बेटा) को एक नये स्कूल में दाखिला दिलाया है। तबादला होने पर उसकी पढ़ाई-लिखाई का बंटाधार समझो।’

‘क्यों... तबादला हुआ भी तो तुम लोगों को कहीं नहीं जाना पड़ेगा। बुबाई इसी स्कूल में पढ़ेगा। तुम लोग यहीं रहोगे।’

‘और आप वहां मेस की रोटियां तोड़ेंगे? यहां घर से खाकर दफ्तर जाते हैं। जरूरत पड़ने पर बीच में आ सकते हैं। यह सब अच्छा नहीं लग रहा था आपको?’

‘घर के पास है तो क्या मैं सब कुछ चुपचाप सहन कर लूं?’

‘करना पड़ता है। आप ही अकेले नहीं हैं इस दफ्तर में। अगर सब स्वीकार कर रहे हैं तो आपको क्या असुविधा है? आप कहां के नवाब ठहरे? आपको यहां आए साल भर भी नहीं हुआ। फिर से तबादला हुआ तो लोग क्या कहेंगे?’

‘लोग क्या कहेंगे, मुझे इसकी परवाह नहीं। वे चाहे जो समझें।’

‘अच्छा, ऐसा है तो फिर घर के पास आए ही क्यों? सपरिवार नहीं रहना चाहते थे तो रायगंज में ही रहने में क्या दिक्कत थी?’

मैं चुप होकर रह गया। मिताली ने जो आशंका व्यक्त की थी, आखिरकार वही हुआ। आज दफ्तर में लंच के लिए बैठा ही था कि बगल के कमरे से आकर दिलीप बाबू बोले, ‘दीपंकर, तुम्हें शायद जबरन ट्रांसफर किया जा रहा है।’

‘आपको किसने बताया?’

‘मैं आज बीडीओ दफ्तर गया था। वहीं से यह सूचना मिली।’

‘मेल आया है कोई क्या?’

‘शायद अब तक आ चुका होगा।’

‘अच्छा। मुझे अभी ऑफिशियली कुछ बताया नहीं गया है।’

दिलीप बाबू ने आगे इतना भर कहा, ‘उसके साथ पंगा लेकर आपने अच्छा नहीं किया।’ मैं समझ गया कि उनका इशारा देबू की तरफ था। मैंने भी आगे कुछ नहीं कहा। एक सूखी हंसी बिखेरता आलू की सब्जी के साथ रोटी चबाने लगा।

शाम को घर लौटकर पत्नी से कहा, ‘जरा एक कड़क चाय बनाना और हो सके तो थोड़ी अदरक भी डाल देना।’ बिना कुछ कहे वह रसोईघर की ओर चली गई। उस दिन से इतना ही बोलती जितनी आवश्यकता होती।

मैं तौलिया लेकर बाथरूम में चला गया। हाथ-मुंह धोकर लौटा और अलमारी से निकालकर कागजपत्रों को समेटने लगा। वे सलीके से हैं कि नहीं, एक बार देख लेना उचित था अन्यथा नई जगह पर कोई समस्या आ सकती है। इसी दफ्तर में तो आने पर एक समस्या खड़ी हुई थी। कोई एक पत्र ढूंढ़े नहीं मिल रहा था, संभवत: एल.पी.सी.। सो सभी कागजपत्र संभालने पड़ेंगे। इसके पहले चाय की एक चुस्की मिल जाती तो...

बुबाई सोफे पर बैठा था। सारा दिन उसने क्या-क्या किया, यह जानने के लिए मैंने उसे गोद में उठाया और प्यार से पूछने लगा। इसी बीच मिताली चाय की ट्रे के साथ वहां आई। ट्रे पर से चाय का प्याला उठाकर एक चुस्की लेते हुए मैंने कहा, ‘वाह! बड़ी स्वादिष्ट चाय बनाई है तुमने।’

मिताली मुस्कुराई। बुबाई के लिए एक कैडबरी का पैकेट लेता आया था। उसे लेकर वह बगल के कमरे में चला गया। उसके जाते ही मैंने पत्नी को अपने तबादले के बारे में बताया। सुनते ही वह सिहर उठी। फिर मायूसी से बोली, ‘हो गई न तसल्ली। इसमें आपका ही कसूर है।’

इससे आगे उसने कुछ नहीं कहा। चुप्पी साध ली। मैने भी कुछ देर चुप रहने के बाद हंसते हुए कहा, ‘दरअसल मैं भी यही चाहता था। कुछ समझी? जानता था कि देबू की पहुंच ऊपर तक है, इसीलिए इन दिनों मैं उससे उलझ रहा था। मैं चाहता था कि वह मेरी शिकायत करे और मेरा तबादला हो जाये। जानती हो क्यों? यहां घर के पास आने के बाद मेरी ऊपरी कमाई बिल्कुल बंद हो गई थी जैसा कि रायगंज में हुआ करती थी। अब देखना, हर साल तुम्हारे लिए कोई न कोई जेवर खरीदूंगा। सच कहता हूं, देबू बहुत भला आदमी है।’

मूल बांग्ला से अनुवाद : रतन चंद ‘रत्नेश’

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