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अपनी एक निजी खिड़की

कहानी
चित्रांकन संदीप जोशी
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रात्रि के डेढ़ बजे का समय। सुकन्या का मोबाइल बज उठा। हावड़ा अस्पताल से फोन था। प्रदीप बाबू के घरवालों को शीघ्र वहां पहुंचने के लिए कहा गया। उनकी गोद में एक छोटा-सा बैग और पॉकेट डायरी मिली है। डायरी हिसाब-किताब से भरी पड़ी है। अंतिम पृष्ठ पर कविता जैसा कुछ लिखा हुआ है—‘हरेक के लिए अपनी एक निजी खिड़की जरूरी है। सही समय पर वह खिड़की न खुल पाए तो...’ प्रदीप बाबू संभवत: वह खिड़की खोलना चाहते थे। कई दिनों से बंद जंग लगी वह खिड़की शायद खुल भी गई हो परन्तु अन्य एक गुप्त खिड़की से उनके प्राण-पखेरू उड़ चुके थे।

अब अधिक देर करने पर आज घर लौटना नहीं हो पाएगा। यों भी रात के दस बजे स्टेशन पर उतरने पर ऑटो वगैरह का मिलना मुश्किल है। अंतिम ट्रेन के हावड़ा पहुंचते-पहुंचते चारों ओर नीरवता पसर जाती है। दुकान बंद कर जल्दबाजी में पांव बढ़ाते हैं प्रदीप साहा। ज्यों-ज्यों रात का अंधियारा बढ़ता है, चिरपरिचित कोलकाता धीरे-धीरे अपरिचित हो उठता है। सुनसान सड़कें-गलियां। सिर्फ वाहनों की चिल्ल-पों, दुर्बोध रंगों का खेल।

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आज प्रदीप बाबू का मन बड़ा अस्थिर है। वे दूसरों की तरक्की या साधन-संपन्नता देखकर ईर्ष्या करते हों, ऐसा भी नहीं है। उनकी दुकान पर जो शंभू काम करता है, उसका बेटा रेलवे की नौकरी पाने पर आज उनका आशीर्वाद लेने आया था। तभी से उनके अपने इकलौते बेटे का चेहरा आंखों के सामने मंडराने लगा था। यह चेहरा उन्हें अक्सर कचोटता रहता है। आज भी उस चेहरे ने शाम से उन्हें विचलित कर रखा था। कई बार पैसों के लेन-देन में भी गलती हो चुकी है। मन के भीतर जो यंत्रणा का पक्षी पंख फड़फड़ा रहा था, उसे किसी भी तरह आज शांत नहीं कर पाए थे वो।

दस वर्ष हो गए हैं, कभी रात को इतनी देर से घर नहीं लौटे। सो, घर पर फोन कर पहले ही सूचना दे दी थी कि आज देर हो जाएगी। जेब से मोबाइल निकालकर उसमें समय देखते ही वे दौड़ पड़े। ट्रेन के कूपे में ज्यों ही पांव रखा, ट्रेन चल पड़ी। उनका सारा शरीर कांप रहा था और वे पसीने से तरबतर थे। इसके पहले कब इस तरह दौड़े होंगे, कुछ भी याद नहीं हालांकि प्रतिदिन विभीषिकामय कुछ अतीत की स्मृतियों से पीछा छुड़ाने के लिए वे लगातार दौड़े जा रहे हैं।

देह यों भी भारी है, उस पर उम्र पचास के लगभग। हृदय का कंपन जैसे सुनाई दे रहा हो। अंतिम ट्रेन, खाली-खाली-सा। खिड़की के पास एक सीट मिल गई। पीठ का सहारा लेकर बैठ गए।

ट्रेन विधाननगर में प्रवेश कर रही है। तरबतर शरीर पर शीतल हवा के साथ- साथ वर्षा की फुहारें चेहरे-आंखों को भिगो रही हैं। इन दिनों बरसात का मौसम नहीं है, फिर भी बारिश हो रही है। आज से पंद्रह दिनों बाद दुर्गापूजा का शुभारंभ है। इन दिनों प्रकृति भी न जाने क्यों कभी किसी नियम का पालन नहीं करती।

नियम का पालन तो उनके बेटे ने भी नहीं किया था। परिवार में चला आ रहा इतने दिनों का नियम। उनके पूर्वजों में से कभी किसी पर राजनीति की कुत्सित छाया नहीं पड़ी थी। राजनीति की बातें सुनने और उस पर चर्चा करने तक ही सीमित थे वे। प्रत्यक्ष राजनीति भले लोगों के लिए नहीं है, पिता की इस बात पर काश कान दे पाता वह युवक। हड़ताल वाले दिन की मध्यरात्रि को छह फुट का वह बेटा लाश बनकर घर लौटा। नहीं, मध्यवर्गीय श्रेणी के लोग हमेशा कोर्ट-कचहरी से दूर रहते हैं। कुछ दिनों तक टीवी-समाचारपत्रों में होहल्ला मचा। पार्टी के लोग दो-चार दिनों तक घर पर आए और फिर उसके बाद सबने चुप्पी साध ली।

बेटे की पार्टी के मित्रों ने फिर से दल बदल लिया है। अब उन्होंने उस दल का हाथ थाम लिया है, जिसके विरुद्ध वे आंदोलन-अभियोग चलाते रहे थे। यह सब सोचना अब प्रदीप बाबू को अच्छा नहीं लगता, फिर भी मन की अस्थिरता थमती नहीं। राख में दबी क्रोधाग्नि-सी एक पीड़ा हृदय में हरदम कसमसाती रहती है।

बेटे के चले जाने के बाद से पत्नी और भी चिड़चिड़ी हो गई है। बेटी भी मोबाइल में व्यस्त रहती है। कभी-कभार प्रदीप बाबू सोचते हैं, सुबह से लेकर शाम तक वे किसके लिए इतना परिश्रम करते हैं? अपने शौक और खुशी की तिलांजलि देकर इतने वर्षों से सिर्फ घर-बार ही संभाले जा रहे हैं। मानो सब कुछ यांत्रिक हो। बेटे की कमी उन्हें बहुत खलती है। ट्रेन की खिड़की के सहारे बैठे वे आंखें मूंदे हुए हैं। घबराहट अभी तक थमी नहीं है बल्कि मन अधिक अशांत हो उठा है। ट्रेन आगे बढ़ी चली जा रही है और प्रदीप बाबू भी यादों की गलियों में खोते चले जा रहे हैं।

उन दिनों उन्होंने स्कूल की फाइनल परीक्षा दी थी। एक पत्रिका में उनकी कविता प्रकाशित हुई। एक किसान का बेटा चोरी-छिपे कविताएं लिखने लगा था। कक्षा के दुष्ट लड़के हों या फिर मोहल्ले के अड्डेबाज, सब मानो उनका मजाक उड़ाते हुए उन्हें रवींद्रनाथ कहने लगे। हालांकि वे इसकी परवाह नहीं करते परंतु कहते हैं न कि विपत्ति कभी बताकर नहीं आती। पिता की मृत्यु के बाद बंटवारे में सामान्य-सा मिल पाया। किससे लड़ें? अपने बड़े भाइयों से? इच्छा और क्षमता कुछ भी तो नहीं थी। भाई-भाई अलग हुए। मां उनके हिस्से में आई। फिर मां के दबाव में बहू आई और फिर साल गुजरते ही बेटे का जन्म हुआ। उसके बाद बेटी। पीछे मुड़कर देखने तक का समय नहीं मिल पाया प्रदीप बाबू को। बेटे के चले जाने के बाद कुछ महीनों तक रातें वर्षों की भांति गुजरीं। दिन किसी तरह व्यस्तता में बीत जाता। भोजन सामने आने पर आंखों के सामने अंधेरा छा जाता क्योंकि बेटा तब तक भोजन को हाथ नहीं लगाता था, जब तक पिता लौटकर घर नहीं आते थे।

इन यंत्रणाओं का कोई निस्तारण नहीं है, यह भलीभांति जानते हैं प्रदीप बाबू। फिर भी हृदय की नदी कोई बंधन स्वीकार नहीं करती। उनकी पथराई आंखें मध्यरात्रि के एकांत में अनजाने में ही तकिये को भिगोती रहतीं।

कभी-कभार सोचते हैं कि बचपन में लिखने का वह सिलसिला फिर से लौट आए तो शायद तनिक शांति मिले। कोशिश भी की, परंतु इच्छाएं जैसे मर गई हों। बहरहाल पढ़ना नहीं छूटा था। समय मिलने पर अक्सर दुकान में बैठे पत्रिकाएं पढ़ लिया करते थे।

ट्रेन अपनी गति से बढ़ी चली जा रही थी। इस कूपे में मुश्किल से आठ-दस व्यक्ति हैं। उन सबकी आंखें भी एक ढाई इंच के यंत्र पर स्थिर हैं। कुछ के कान पर हेडफोन। बाहर अंधेरा गहराता जा रहा था। दूर-दूर तक प्रकाश की किरणें टिमटिमा रही थीं। याद आया, प्रदीप बाबू एक बार बेटे को लेकर जलपाईगुड़ी गए थे, अपने एक मित्र के घर। ट्रेन में जाते-जाते कितने प्रश्न किए थे उसने। उस समय वह पांचवीं कक्षा में था। दौड़ती ट्रेन से दूर से दिखती प्रकाश की किरणों को देखकर उसने पूछा, ‘पिताजी, क्या वे बड़े-बड़े जुगनू हैं?’

वे सारी बातें आज उन्हें बींध रही हैं। न जाने कब से प्रदीप बाबू ने एक शब्द तक नहीं लिखा। घर-संसार, संतान, दुकान और महीनों के हिसाब के चक्रवात में सब कुछ उलझकर रह गया। आज अचानक कमीज की जेब से छोटी डायरी निकाली। एक-दो शब्द लिखे और फिर काट दिए। यह क्रम कुछ देर तक चलता रहा।

ट्रेन की गति बढ़ रही थी और खिड़की से बौछारों का वेग भी। प्रदीप बाबू लिखे चले जा रहे थे। मन की अस्थिरता मानो थोड़ी-थोड़ी घट रही थी। शरीर शांत हो रहा था। बीच-बीच में आंखों के सामने स्पष्ट उभरता रहा बेटे का चेहरा। उसने गेंद फेंककर पड़ोसी के घर का कांच तोड़ दी है, माध्यमिक का परिणाम लेकर घर लौटा है। प्रदीप बाबू को लगा, बेटा सामने है। उसे छू सकते हैं। उसके गालों को चूम सकते हैं।

रात्रि के डेढ़ बजे का समय। सुकन्या का मोबाइल बज उठा। हावड़ा अस्पताल से फोन था। प्रदीप बाबू के घरवालों को शीघ्र वहां पहुंचने के लिए कहा गया। उनकी गोद में एक छोटा-सा बैग और पॉकेट डायरी मिली है। डायरी हिसाब-किताब से भरी पड़ी है। अंतिम पृष्ठ पर कविता जैसा कुछ लिखा हुआ है—‘हरेक के लिए अपनी एक निजी खिड़की जरूरी है। सही समय पर वह खिड़की न खुल पाए तो...’

प्रदीप बाबू संभवत: वह खिड़की खोलना चाहते थे। कई दिनों से बंद जंग लगी वह खिड़की शायद खुल भी गई हो परन्तु अन्य एक गुप्त खिड़की से उनके प्राण-पखेरू उड़ चुके थे।

मूल बांग्ला से अनुवाद रतन चंद ‘रत्नेश’

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