वोटरों ने नकारा ‘वोट चोरी’ का नारा
कांग्रेस द्वारा चुनाव आयोग को दोष देना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। पूरे चुनाव प्रचार के दौरान, विपक्ष के नेता राहुल गांधी, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, प्रियंका गांधी, अशोक गहलोत समेत कई वरिष्ठ नेताओं ने बार-बार फर्जी मतदान, मशीनों से छेड़छाड़ और प्रशासनिक पक्षपात के आरोप लगाए। लेकिन मतदाताओं ने इन पर यकीन नहीं किया।
राष्ट्रीय स्तर के इन आरोपों का उस राज्य में बिल्कुल असर नहीं दिखा, जहां मतदान व्यापक संवैधानिक चिंताओं के बजाय तात्कालिक आर्थिक चिंताओं और सामाजिक स्थिरता से प्रभावित होता है। बिहार में ऐतिहासिक 67.13 प्रतिशत मतदान हुआ, जो 1951 के बाद से सबसे अधिक है। फिर भी, कांग्रेस या उसके गठबंधन को कोई लाभ नहीं हुआ।
महागठबंधन की कमजोरी जमीनी स्तर पर साफ दिखाई दी। कई दौर की उच्च-स्तरीय वार्ता के बावजूद, गठबंधन 11 निर्वाचन क्षेत्रों में ‘दोस्ताना लड़ाई’ रोकने में विफल रहा। यह एक ऐसे राज्य में विशेष रूप से नुकसानदेह चूक थी, जहां जीत का अंतर बेहद कम होता है। कांग्रेस और राजद पांच सीटों पर, कांग्रेस और माकपा चार सीटों पर, राजद और वीआईपी दो सीटों पर भिड़ गए। इन असहमतियों ने मतदान शुरू होने से पहले ही गठबंधन को कमजोर कर दिया।
बूथ-स्तरीय लामबंदी, जो लंबे समय से बिहार में प्रतिस्पर्धी राजनीति की रीढ़ रही है, विफलता का एक और बिंदु बन गई। एनडीए के अनुशासित और आंकड़ों पर आधारित जमीनी अभियान की बराबरी करने के लिए महागठबंधन संघर्ष करता रहा। परस्पर विरोधी व्यक्तित्व, समानांतर रोड शो और असंगत नारों ने गठबंधन को एक एकीकृत विकल्प पेश करने से रोक दिया। इसके बजाय जो सामने आया वह एक खंडित गठबंधन था।
राजद, कांग्रेस, माकपा और वीआईपी से मिलकर बना महागठबंधन व्यापक वैचारिक दायरे के साथ चुनाव मैदान में उतरा, लेकिन उसके पास कोई एक कथानक नहीं था। इसके विपरीत, एनडीए ने स्थिरता, सुशासन और कल्याणकारी योजनाओं पर आधारित एक समन्वित, सुनियोजित अभियान चलाया, जिसे बूथ प्रबंधन और महिला मतदाताओं का व्यापक समर्थन प्राप्त था। संदेश और तंत्र की यह स्पष्टता सीधे सीटों में तब्दील हुई।
कांग्रेस के लिए, यह फैसला केवल चुनावी नहीं, बल्कि ऐतिहासिक है। एक पार्टी जिसने कभी 1952 के पहले विधानसभा चुनाव में 239 सीटें जीतकर बिहार की राजनीतिक संरचना को परिभाषित किया था, अब अपनी प्रासंगिकता के लिए संघर्ष कर रही है।
