आपकी हंसी
वे मित्र हंसते-हंसते दोहरे हो गए। ऐसे लगा जैसे उन्हें कोई दौरा पड़ गया हो। मैं मूर्ख की तरह उनका मुंह ताकता रहा। हंसी कुछ थमने पर बोले- ‘दरअसल आपकी ही तरह पागल है वह। इसीलिए आपको तो ‘नार्मल’ ही लगेगा न।’ उन्होंने फिर एक जोरदार ठहाका लगाया और बोले- ‘लेकिन पगले की बीवी बड़ी सुन्दर थी। किसी यार के साथ भाग गई। अच्छा भला आप ही बताइए, बिना पागल हुए कोई इतना हंस सकता है?’
पहली नज़र में वह मुझे एक बहुत खुशमिजाज आदमी लगा जो हमारे आने से बहुत खुश था। शायद इसीलिए बात-बेबात हंस पड़ता था। मुझे लगा कि इस छोटे-से कस्बे के सूनेपन को तोड़ती हुई हम शहरातियों की टोली के आने से वह बहुत खुश था। उसकी हंसी उसकी बड़े पकौड़े-सी नाक को उठाती हुई उसके चेहरे को अजीब मसखरेपन से रंग देती थी। शायद उसका चेहरा किसी फिल्म के कामेडियन से मिलता भी था। वैसे सच पूछिए तो इतना खुश होने की कोई बात थी नहीं। किसी घर में चार जोड़े चार बच्चों सहित यानी कि कुल बारह आदमी आ धमकें, तो कोई कैसे खुश हो सकता है। इस तरह बिना मतलब खुश होने वाले आदमी को देखकर मेरे अन्दर कुछ अजीब-अजीब-सा होने लगता है-बिना वजह मैं कुछ परेशान हो उठता हूं। खैर, वह खुश था और उसकी हंसी उसके होंठों को लम्बा तानती हुई चेहरे के दोनों तरफ खूब सिलवटें पैदा करती थीं। मैंने सोचा, शायद छोटी जगह के लोग बड़े शहर के लोगों के आने से परेशान नहीं होते होंगे।
किन्तु यह आदमी है कौन? इसका हमारे मेजबान से क्या रिश्ता है-यह समझना मुश्किल था। मुश्किल की वजह यह थी कि वह खाते समय तो हमारे साथ ही बैठकर खा रहा था और हमारे मेजबान नत्थू बाबू के लड़के की बहू उसे भी खाना परोस रही थी। पर उसके बाद वह उठकर जूठे बरतन उठाने लगा था। उसने मेरी थाली उठा ली, तो मैं संकोच और घबराहट से उसे मना करते हुए थाली पकड़कर उसे ऐसा करने से रोकने लगा, किन्तु वह थाली किसी तरह छोड़ने के तैयार नहीं था। इसी खींचातानी से एक अजीबोगरीब स्थिति पैदा हो गई। तब मैंने हारकर थाली छोड़ दी। वह थाली रख आया और दूसरों की थालियां उठाने लगा। मैंने उन लोगों की तरफ देखा, पर किसी के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। मुझे अपने शहर के इन निर्लज्ज लोगों पर बड़ी हैरत हुई। मुझे लगा कि ये आलसी लोग खुश हैं कि इनका काम करने वाला कोई मिल गया या फिर शायद इन्हें सारे देहाती लोग अपने नौकर जैसे ही लगते होंगे। रात को सोते समय मैंने देखा कि उसका बिछौना बाहर के कमरे में घर के मालिक नत्थू बाबू के बगल में ही लगा था और वह सब लोगों की बातचीत सुनता हुआ और खुद भी कुछ-कुछ बोलता हुआ हंस रहा था। किन्तु फिर सुबह मैंने उसे कड़कती ठंड में नीचे से बाल्टियां भर-भर के पानी लाते हुए देखा। नाश्ता करते समय वह दौड़-दौड़कर रसोईघर से खाना लाकर हमें खिला रहा था। बार-बार पूछकर और लेने का अनुरोध करता था और बीच-बीच में वैसे ही हंसता था। उसके बार-बार पूछने से चिढ़कर हमारी टोली से ही एक व्यक्ति ने रुखाई से कहा-‘कह तो दिया, नहीं लूंगा।’ वह शख्स न जाने किस मिट्टी का बना था, इस बात पर हंस पड़ा। मैं तो अपने मित्र की इस बदतमीजी पर गुस्से के मारे लाल-पीला हो रहा था, पर उसकी हंसी में न जाने क्या था कि मैं भी हंस पड़ा। मेरी इस बेमतलब की हंसी से हमारे वे मित्र बुरी तरह चिढ़ गए और जल्दी-जल्दी नाश्ता खत्म कर वहां से उठ गए।
उसने मुझे एक अजीब पशोपेश में डाल दिया था कि यह आखिर कौन है। वह उस घर का नौकर तो नहीं ही था क्योंकि घरवालों के साथ ही उठता-बैठता और खाता-पीता था। किन्तु वह घर में हर तरह के काम करता था। नत्थू बाबू और उनकी बीवी उसे नौकरों की तरह काम करने के आदेश देते थे और वह उसी तरह हंसते हुए काम करता था। कभी हाथ में झाड़न लिए हुए सारे घर की धूल झाड़ता फिरता था, कभी किसी कपड़े को उठाकर पूछ लेता था कि ‘यह आपका तो नहीं है?’ बीच-बीच में वही हंसी हंसता और काम करता रहता-मेरी आंखें बरबस उसकी ओर खिंच जातीं। हमारी टोली में कोई उस पर विशेष ध्यान नहीं दे रहा था, यहां तक कि बच्चे भी, जिनसे वह बार-बार बात करने की चेष्टा करता था, उसकी तरफ से निपट उदासीन थे। यहां तक कि उसने एक बार एक बच्चे की गेंद को रोककर उठा लिया और देखता रहा कि बच्चा उसकी तरफ आएगा, पर वह बच्चा गेंद भूलकर दूसरे कमरे में घुस गया। मैंने देखा कि पहली बार उसके चेहरे पर कुछ शिथिलता आई। फिर वह गेंद को धीरे-से नीचे रखकर चौके में चला गया। मैं छत पर जाने के बहाने चौके के सामने से गुजरा तो मैंने देखा कि वह नत्थू बाबू की बीवी के साथ उबले हुए आलू छिलवा रहा था और बहुत खुश होकर हंस रहा था। मुझसे आंखें मिलने पर वह मुस्कुराया और मुझे भी जवाब में मुस्कुराना पड़ा।
नत्थू बाबू और उसकी बीवी हमारी खूब खातिर कर रहे थे। मैं अक्सर उसके चेहरे पर परेशानी या उकताहट के चिन्ह खोजा करता था, पर लगता था कि वे बहुत ही भले आदमी हैं। उनके लड़के की बहू जरूर मशीन की तरह काम करती थी। उसके चेहरे पर न कोई प्रसन्नता दिखती थी, न नाराजगी। वह काफी सुन्दर भी थी, और खासकर नत्थ्ाू बाबू की भैंस जैसी बीवी के सामने तो अपूर्व सुन्दरी लगती थी। कई बार ऐसा लगता था कि उसे अपनी सुन्दरता का बहुत घमंड हो। कई बार लगता था कि बेचारी थक जाती होगी काम करते-करते। एकाध बार तो वह सिर-दर्द का बहाना कर सोती भी रही थी। वह थी भी शहर की ही लड़की। मैं सोचने लगा कि नत्थू बाबा के पास यह आदमी न होता, तो उन्हें हम लोगों का आना पहाड़-सा लगता। बेचारा सारे दिन कुछ-न-कुछ करता घूमता ही रहता था। उसका पाजामा इतना ढीला-ढाला था कि शहराती फैशन के अनुसार उसके तीन पाजामें बन जाते। तेजी से चलते हुए उस लहराते हुए पाजामें में वह बड़ा अजीब लगता था। एक बार मैंने दूर से देखा कि उसने नत्थू बाबू के लड़के की बहू को रोककर कुछ बात कही। बहू के भावहीन चेहरे पर न कोई भाव आया और न ही उसने कुछ जवाब दिया। वह ऐसे आगे बढ़ गई जैसे कोई उससे कुछ बात पूछ ही न रहा हो। तब भी वह हंसा और आगे बढ़ गया।
अब मेरे लिए यह जाने बगैर रहना मुश्किल हो गया था कि यह अादमी कौन है। यह क्यों इस घर के सदस्य की तरह रहते हुए भी उन लोगों के लिए जैसे कोई है ही नहीं। इसका अपना घर-परिवार कहां है? पर मुझे समझ में नहीं आता या कि किससे पूछें और कैसे पूछें। नत्थू बाबू और उनका लड़का दोनों ही बहुत कम बोलते थे। उनसे यह प्रसंग कैसे छेड़ा जाए। कहीं बुरा तो नहीं मानेंगे इसकी भी आशंका मुझे थी क्योंकि एक तो वैसे ही हम सब उन पर बोझ बने हुए मुफ्त की पिकनिक मना रहे थे। हमारी टोली में से एक सदस्य उनका कोई दूर का रिश्तेदार था, जिसके कारण हम छुट्टियों में घूमने के लिए उनके यहां दो-तीन दिन के लिए टिक गए थे और रोज वहां से किसी बांध या पर्वत या मन्दिर घूम आते थे। ऐसे में उनके घरेलू मामलों में दखल देना मुझे उचित नहीं लग रहा था। नत्थू बाबू और उनके घरवालों का व्यवहार उसके प्रति सपाट-सा था-उसमें न कोई गरमाहट थी और न ही कोई भावना। उस आदमी की हंसी ही अजीब थी, जो मुझे बरबस अपनी ओर खींच लेती थी। नत्थू बाबू की बीवी का वह चौके में भी काफी हाथ बंटा देता था। आखिर इतने लोगों का भार गृहिणी के लिए अकेले संभालना तो मुश्किल ही था। हमारी टोली में एक स्त्री गृहिणी की मदद अवश्य करती थी, बाकी तीन उसकी प्रशंसा के पुल बांध बांधकर ही काम चला लेती थीं। वे घर के काम-काज में हाथ बंटाकर अपनी पिकनिक को बरबाद करने की मूर्खता करने को तैयार नहीं थीं। अपनी सीधी-सादी सहेली की प्रशंसा करते समय उनके चेहरे पर एक तरह के आत्मगौरव का भाव रहता था क्योंकि उन्हें यह अहसास था कि उनका व्यक्तित्व उनकी सहेली से कुछ ऊंचे दर्जे का है। उन्हें देखकर में अक्सर सोचता था कि अगर उनके घर में ऐसे मेहमान आ जाएं तो ये क्या करेंगी।
जिस दिन हम लोग लौटने वाले थे, उस दिन सुबह वह भी हमारे साथ चाय पी रहा था। उसकी मुझसे एक अनकही आत्मीयता हो गई थी क्योंकि में ही उसकी हंसी के जवाब में मुस्कुरा दिया करता था। चाय पीते-पीते नत्थू बाबू ने उसे नीचे जाकर सब्जी खरीद लाने को कहा। नत्थू बाबू के घर के नीचे ही सब्जी का बाजार लगता था। जब वह चला गया तो मैंने नत्थू बाबू से सकुचाते हुए पूछा- ‘यह क्या अपने परिवार के साथ नहीं रहता?’ नत्थू बाबू पहले तो यह समझे ही नहीं कि मैं किसके लिए पूछ रहा हूं फिर समझने पर बोले- ‘इसका कोई परिवार नहीं। यह यहीं रहता है।’ उनके बोलने के ढंग से मैं समझ गया कि वे और प्रश्नों को पसन्द नहीं करेंगे। मैं चुप रहा और अपने प्रश्नों को निगल गया।
जब हम लोग गाड़ी में सामान लदवाकर चलने लगे तो वह हांफता हुआ गाड़ी के पास खड़ा हो गया। उसने हमारे सामान को लदवाने में काफी मेहनत की थी। अब वह बच्चों को देख-देखकर हंस रहा था, जो अपनी टाफियों के बंटवारे में लगे हुए थे। नत्थू बाबू और उनकी बीवी वे सब बातें कर रहे थे जो मेहमानों को विदा करते समय कही जाती हैं और हम लोग वे सारे जवाब दे रहे थे जो मेहमान ऐसे मौकों पर दिया करते हैं। नत्थू बाबू की बीवी के चेहरे पर सिर को बला टलने का सन्तोष छुपाए नहीं छुप रहा था। उनके बेटे की बहू जिसने इतने दिन हम लोगों से बात करने की कोई विशेष चेष्टा नहीं की थी, कुछ अनमनी-सी दिख रही थी। उसने कहा- ‘आप लोग आए, तो यहां चहल-पहल हुई, वरना तो बस...’ कहकर वह चुप हो गई। अचानक मेरी निगाह उस पर गई। उसके चेहरे से वह जानी-पहचानी हंसी अब गायब थी और उसकी आंखों से झर-झर आंसू गिर रहे थे। मेरा मन न जाने कैसा कैसा हो गया और मैंने अपनी निगाहें फेर लीं। गाड़ी चलने पर मैंने नत्थू बाबू के उस दूर के रिश्तेदार से पूछा- ‘यह आदमी, जो नत्थू बाबू के यहां काम करता है कौन है?’ उन्होंने मुझसे कहा- ‘कौन, वह पगला? दूर का रिश्तेदार है या कहिए कि मुफ्त का नौकर है।’ मैंने आश्चर्यचकित होकर कहा- ‘पगला? वह क्या आपको पागल दिखता है?’ इस पर मेरे वे मित्र हंसते-हंसते दोहरे हो गए। ऐसे लगा जैसे उन्हें कोई दौरा पड़ गया हो। मैं मूर्ख की तरह उनका मुंह ताकता रहा। हंसी कुछ थमने पर बोले- ‘दरअसल आपकी ही तरह पागल है वह। इसीलिए आपको तो ‘नार्मल’ ही लगेगा न।’ उन्होंने फिर एक जोरदार ठहाका लगाया और बोले- ‘लेकिन पगले की बीवी बड़ी सुन्दर थी। किसी यार के साथ भाग गई। अच्छा भला आप ही बताइए, बिना पागल हुए कोई इतना हंस सकता है?’ कहकर उन्हें फिर हंसी का दौरा पड़ गया।
