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लौटते हुए

लघुकथा
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अशोक जैन

पैंसठ वर्षीय गोपाल बाबू जैसे ही घर से प्रातः भ्रमण के लिए निकले, हरी बाबू मिल गये।

‘कैसे हो गोपाल?’

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‘बस चल रहा है। आओ, थोड़ा टहल लें।’

दोनों साथ=साथ तारकोल की सड़क पर बायीं ओर धीमी गति से बतियाते हुए अपने अतीत को याद करने लगे...

...वो क्रिकेट ग्राउंड ...बाॅलिंग करता गोपाल ...चीखता चिल्लाता हरी ...कैच पकड़ता नीरज और फिर तालियां...

‘यार, वे दिन जल्दी चले गये!’

‘दिन तो चौबीस घंटे का ही होता है। हम बड़ी तेजी से जिए... पता ही नहीं चला कि कब बूढ़े हो गये!’

...बच्चे, गृहस्थी, रिटायरमेंट के बाद का खालीपन...

अब दोनों को ही अखरने लगा था!

‘गोपाल...!’

‘हूं...!’

‘सुन रहे हो न! काश! हमारे बीते दिन लौट आते!’

गोपाल बाबू उसकी डूबती आवाज़ से आहत हुए। चौंके, और सतर्क होकर बोले,

‘अरे! तो क्या हुआ? दिन लौटकर नहीं आ सकते पर हम लोग उन दिनों में वापस तो जा सकते हैं!’

दोनों की नज़रों में विश्वास की चमक झलकने लगी।

पश्चिम से उठे गहरे काले बादलों का एक झुंड आकाश में छितराने लगा था। वापस लौटते समय उनकी बैंत की आवाज़ सड़क पर अधिक मजबूती से प्रतिध्वनित हो रही थी।

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