प्रगति गुप्ता
जीवन यात्रा तय करते हुए जब अभिव्यक्तियां गूढ़ होने लगें तब समझ लेना चाहिए कि जीने के मायने अर्थपूर्ण होने लगे हैं। समय के साथ व्यक्ति के आचार, विचार और सोच में आई परिपक्वता उसके दृष्टिकोण में गहराई लाती है। तब ही सृजन का अनूठा रूप पाठकों के सामने आता है|
श्रीराम दवे की कविताएं संघर्ष, बेचैनी और प्रतिरोध के भावों के संग बहुत कुछ तलाशती हुई नज़र आती हैं। पाठकों को पढ़ने के लिए उद्वेलित करती हैं। संग्रह में एक ही शीर्षक बीहड़, यात्रा, मार और चेहरा से जुड़ी रचनाओं की सीरीज है| कविताओं में अंतर्निहित भाव समाज के कई काले पक्षों पर प्रहार कर पाठकों की संवेदनाएं को जाग्रत करते हैं और पाठक को सोचने पर मजबूर करते हैं। बीहड़ कविता की कुछ पंक्तियां उल्लेखित हैं :-
‘घर-खेत-खलिहान-खंडर/ स्कूल, चलती बस और मरघट/ तब बीहड़ ही बन जाते हैं/ उनके वास्ते/ जहां उनका पुरुषत्व/ कालिख मल लेता है/ अपने ही चेहरे पर…’
शब्दों का इंद्रधनुष उत्कृष्ट सृजन है। जहां शब्दों के महिमा गान संग उनके प्रभाव व्यक्ति के व्यवहारों की परिभाषाएं गढ़ते हुए नजर आते हैं।
‘शब्दों का यह इंद्रधनुष जब तनता है/ तब-तब संवेदना की बरसात/ …सृजन के अंकुर/ वृक्ष बनने के लिए फूट पड़ते हैं…’
आज की राजनीति, सत्ता और सत्ताधारियों के झूठ-सच्चे आचारों पर उंगली उठाते हुए तीक्ष्ण प्रहार हैं।
‘हवा जब चलती है मतपेटियां भर जाती हैं…’
शब्दों की लीला और शब्द जो कम पड़ गए जैसी कई रचनाएं अभिव्यक्तियों में शब्द कम पड़ने की बात करती हैं।
‘घुमड़ता भी है झंझावात अर्थों का… शब्द भी कम पड़ गए…’
कवि ने स्त्री की पीड़ा को बहुत मार्मिक ढंग से उकेरा है :-
‘सवाल की कोख से/ एक और सवाल कुनमुनाता है/…जितना इरोम शर्मिला जैसों का/ संघर्षरत रहना…’
प्राकृतिक आपदाओं से टूटते जनजीवन का मार्मिक चित्रण मौत के लिबास… धूजना, त्रासदी और सद्गति, शाही स्नान कविताओं में हुआ है।
शीर्षक कविता के अलावा न जाने कब से, संकुचन, सुख के बचपन का चेहरा, न जाने कब से, देह का दुरूह व्याकरण, परछाई से बात, डर जो अब खुश है, कच्चा श्मशान जैसी रचनाएं अर्थपूर्ण हैं। कविताओं में प्रतीकों और बिंबों का अच्छा प्रयोग है।
पुस्तक : कठपुतलियां जाग रही हैं कवि : श्रीराम दवे प्रकाशक : अयन प्रकाशन, महरौली, नयी दिल्ली पृष्ठ : 104 मूल्य : रु. 220.