प्रकाश मनु
विष्णु प्रभाकर हिंदी के सिरमौर कथाकार हैं। वैसे तो उन्होंने साहित्य की तमाम विधाओं में लिखा है—कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, संस्मरण आदि-आदि, और लगभग हर विधा में उन्होंने कुछ नया और मूल्यवान जोड़ा है। पर वे स्वयं मानते रहे कि उनके साहित्य की केंद्रीय धुरी कहानी ही है। कहानी के साथ उनकी कलम खूब खेलती है और साथ-साथ पाठकों को जीवन के विशाल रंगमंच पर तमाम रंगों परिदृश्यों की अंतहीन छवियों के बीच यात्रा के लिए छोड़ देती है।
विष्णु जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा कि वे बचपन में दादी की कहानियां सुनते थे, तो उनका मन कल्पना के पंखों पर उड़ने लगता था। कहानी के अलौकिक आनंद का अनुभव उन्होंने तभी किया। बाद में ‘चंद्रकांता’, ‘चंद्रकांता-संतति’ और ‘भूतनाथ’ पढ़ा। ‘किस्सा हातिमताई’ और ‘किस्सा साढ़े तीन यार’ सरीखी पुराने दौर की रचनाएं पढ़ीं तो किस्से-कहानी की शक्ति से परिचित हुए। कुछ आगे चलकर प्रेमचंद को पढ़ा, जैनेंद्र और चंद्रगुप्त विद्यालंकार को पढ़ा तो मन कहानी लिखने के लिए ललक उठा और उनकी सृजन-यात्रा की शुरुआत भी एक कहानी से ही हुई। लाहौर से निकलने वाले पत्र ‘हिंदी मिलाप’ में उनकी कहानी ‘दीवाली के दिन’ छपी थी। वही उनकी प्रकाशित पहली सृजनात्मक रचना थी।
कुछ अरसे बाद विष्णु जी ने पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लिखना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे साहित्य जगत में उनकी एक अलग पहचान बनने लगी। प्रेमचंद और जैनेंद्र जी ने उनकी कहानियों को सराहा। विष्णु जी की कहानियों में शिल्प की पेचीदगियों के बजाय, भावना और करुणा की एक सहज धारा बहती थी। लिहाजा उनकी लिखी कहानियां पाठकों के दिल में उतर जातीं। बाद में ‘धरती अब भी घूम रही है’ कहानी छपी तो उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई। हिंदी की प्रथम पांत के कहानीकारों में उनका नाम लिया जाने लगा।
चाहे प्रेम और स्त्री को लेकर लिखी गई विष्णु जी की दर्जनों कहानियां हों या गरीबी और आर्थिक दुश्चक्रों को लेकर लिखी गई करुण और भावना से सींची हुई कहानियां, देश-विभाजन की भीषण त्रासदी को लेकर लिखी गई दुख-हाहाकार भरी कहानियां हों या मनुष्य-मन के क्षुद्र कोनों को उघाड़ती कहानियां, विष्णु जी प्रारंभ सदैव एक छोटे लोकेल से करते हैं। हालांकि कहानी का अंत आते-आते हम एक बड़े परिप्रेक्ष्य में, बड़े सवालों की बेचैनी और मनुष्य मात्र की एक बड़ी आस्था की रोशनी में खुद को खड़ा पाते हैं।
कहना न होगा कि यही विष्णु जी की कहानियों का असल जादू या उस्तादी है, जो उन्हें भारतीय जनता का सच्चा, प्रामाणिक और अप्रतिम कहानीकार बना देता है। उनकी ‘मुरब्बी’, ‘एक और कुंती’, ‘कैसी हो मारियम्मा’, ‘जिंदगी : एक रिहर्सल’, ‘पुल टूटने से पहले’, ‘गर्विता’, ‘मेरा वतन’, ‘हरीश पांडे’, ‘सुराज’, ‘एक कहानी का जन्म’, ‘तांगे वाला’, ‘अब्दुल्ला’, ‘जीवन एक कहानी’, ‘सच मैं सुंदर हूं’ जैसी दर्जनों कहानियां पढ़ने के बाद मैं अब यह बात कह सकता हूं कि विष्णु प्रभाकर की लंबी और समृद्ध कथा-यात्रा गंभीर मूल्यांकन और नए सिरे से समझे जाने की चुनौती देती कथा-यात्रा है और उसे ठीक-ठीक समझे बगैर हिंदी की कथा-यात्रा पर बात करना संभव ही नहीं है।
विष्णु जी के इस विपुल कथा-संसार से गुजरते हुए बार-बार यह अहसास होता है कि उन्हें भावुक और आदर्शवादी कथाकार कहना उनके कथाकार के कद को छोटा, बहुत छोटा करके देखना है। इसके बरक्स सच तो यह है कि विष्णु जी का कहानीकार न सिर्फ खासा बोल्ड है, बल्कि यथार्थ पर उसकी पकड़ भी बहुत मजबूत है। और उसे जब जो कहना होता है, वह कहता है। यहां विष्णु जी की खासी चर्चित कहानी ‘एक और कुंती’ का जिक्र किया जा सकता है, जिसमें एक स्त्री की एक स्वतंत्र और मुक्त अवधारणा है। वह अपना जीवन अपने विचारों और अपने सपनों के साथ जीती है और किसी के विरोध की परवाह नहीं करती।
‘अब्दुल्ला’ भी ऐसी ही यादगार कहानी है, जिसमें आम के बाग की रखवाली करने वाले बूढ़ा अब्दुल्ला का करुणापूरित चेहरा मुझे कभी नहीं भूलता। वह दिन भर आम के बाग में बैठा आमों की रखवाली करता रहता है, पर स्कूल के बच्चे आते हैं तो वह जान-बूझकर आंखें बंद कर लेता है, ताकि बच्चे भरपूर आम तोड़ लें। किसी दिन बच्चों की यह नटखट टोली दिखाई न पड़े तो वह अकुला जाता है।
इसी तरह स्वाधीनता संग्राम, देश-विभाजन और सांप्रदायिकता की समस्या पर विष्णु जी ने जितनी कहानियां लिखी हैं, उतनी बहुत कम कहानीकारों ने लिखी होंगी। सच तो यह है कि विष्णु प्रभाकर सिर्फ एक बड़े कथा-लेखक ही नहीं, वे एक ऐसे महारथी हैं, जिनकी रचनाएं बीसवीं सदी के मनुष्य और समाज को भीतर से देखने की ‘आंख’ भी देती हैं।