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गांव ऊंघते मैदानों में

गीत
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डूब गया फिर पोखर में दिन।

पीले पातों की काया पर

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लिखे हुए थे जितने आखर,

पढ़ता जब-जब मन का ‘दरपन’,

अर्थ हुआ जाता सूनापन—

डूब गया फिर पोखर में दिन।

काटी तम ने रवि की पांखें,

संध्या की भर आयी आंखें।

बाट जोहती हो ज्यों बिरहन,

टपकाती दो आंसू के कन—

डूब गया फिर पोखर में दिन।

रात उतरती सीवानों में,

गांव ऊंघते मैदानों में।

दूर अंधेरे में सन-सन-सन,

आल्हा गाते बांसों के वन—

डूब गया फिर पोखर में दिन।

गूंज अन्तिम गीत की

जो झूलती खो चेतना

ठण्डी हवा की गोद में—

वह गूंज अन्तिम गीत की;

अब सो गयी है ऊंघ कर।

उलझे अंधेरे जाल में,

अनुगूंज के पंछी सभी

अब हो गए हैं शान्त वे—

दो पंख फैले कांप कर।

गहरा हुआ है मातमी

यह रात का गाढ़ा कफन,

जिसके तले होगा दफन

दम तोड़ता रोगी शहर।

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