Tribune
PT
Subscribe To Print Edition About the Dainik Tribune Code Of Ethics Advertise with us Classifieds Download App
search-icon-img
Advertisement

गांव ऊंघते मैदानों में

गीत

  • fb
  • twitter
  • whatsapp
  • whatsapp
Advertisement

डूब गया फिर पोखर में दिन।

पीले पातों की काया पर

Advertisement

लिखे हुए थे जितने आखर,

Advertisement

पढ़ता जब-जब मन का ‘दरपन’,

अर्थ हुआ जाता सूनापन—

डूब गया फिर पोखर में दिन।

काटी तम ने रवि की पांखें,

संध्या की भर आयी आंखें।

बाट जोहती हो ज्यों बिरहन,

टपकाती दो आंसू के कन—

डूब गया फिर पोखर में दिन।

रात उतरती सीवानों में,

गांव ऊंघते मैदानों में।

दूर अंधेरे में सन-सन-सन,

आल्हा गाते बांसों के वन—

डूब गया फिर पोखर में दिन।

गूंज अन्तिम गीत की

जो झूलती खो चेतना

ठण्डी हवा की गोद में—

वह गूंज अन्तिम गीत की;

अब सो गयी है ऊंघ कर।

उलझे अंधेरे जाल में,

अनुगूंज के पंछी सभी

अब हो गए हैं शान्त वे—

दो पंख फैले कांप कर।

गहरा हुआ है मातमी

यह रात का गाढ़ा कफन,

जिसके तले होगा दफन

दम तोड़ता रोगी शहर।

Advertisement
×