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वसुंधरा

बांग्ला कहानी

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चित्रांकन संदीप जोशी
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रात को बिस्तर पर लेटे-लेटे पलाशी सोचती रही कि एक-एक मनुष्य के चले जाने पर जैसे एक अध्याय समाप्त हो जाता है। उसका अपना पुत्र क्या कभी यह सब जान पाएगा या फिर इस घर में आएगा? क्या वह जान पाएगा कि वक्ष की इन पसलियों में कितनी पीड़ा है? यह सब सोचते-सोचते सुबह के पक्षियों का कलरव आरंभ हुआ। गहन निद्रा से जाग उठे पेड़-पौधे। सुबह के प्रकाश की नरम आभा में टगर के जंगली सफेद फूल चमचमा रहे थे। अपने पांव बढ़ाते हुए पलाशी घर के पिछवाड़े के उस आम के पेड़ तक जा पहुंची, जहां आंधी के बाद वह बुआ के साथ गिरे आमों को बटोरने आया करती थी।

बीस वर्षों बाद सब कुछ अनजाना-सा लग रहा है पलाशी को। मानो धूलधुसरित आंखों से देख रही हो चारों ओर। एक लंबा अंतराल। कितना कुछ बदल गया है? नदियां तक अपना रास्ता भूल गई हैं। वह अतीत से वर्तमान में लौटने की जद्दोजहद करती है। गली के मोड़ में जो निताई की बांस से बनी किराने की दुकान हुआ करती थी, वह कहां गई? उन दिनों निताई की उम्र पचास के लगभग होगी। आज सत्तर के आसपास होनी चाहिए थी। यहां तो अब कोई मोड़ ही कहीं नजर नहीं आ रहा और न ही है कोई दुकान। स्वस्थ राधाचूड़ा (गुलमोहर प्रजाति) का जो वृक्ष था वह भी समयानुसार कुछ बूढ़ा तो गया है, परंतु पलासी आश्वस्त हुई कि वह अब भी मौजूद है, हालांकि शाखाएं-प्रशाखाएं पहले जैसी नहीं रहीं। फूलों के झड़ने के बाद उसके कुछ पतले से लंबे बीज हवा में इधर-उधर झूल रहे हैं। पेड़ की देह परजीवियों की आश्रयस्थली बन चुकी है। एक समय ऐसा भी था कि सिपाहीबाड़ी का नाम सुनते ही लोग कांप उठते थे। बड़े-बड़े चोर-उचक्कों और डकैतों की शरणस्थली थी यह जगह। दिन में भी घटाटोप अंधकार फैला रहता था इस गांव में। एक कौआ तक बोल नहीं पाता था उनके भय से।

अवश्य ही अब तस्वीर बदल चुकी है। केरल के रुपयों से चारों ओर छाए टीन के घर चमचमा रहे हैं। नये-नये युवा होते लड़के पढ़ाई-लिखाई छोड़कर पैसा कमाने दक्षिण की ओर भागे जा रहे हैं। इस समय दोपहर की धूप पलाशी के चेहरे पर लिपटी हुई है। धरधरा नदी के किनारे-किनारे चाय बागान फैलते जा रहे हैं। उसने ऑटो को वहीं रुकने के लिए कहा। उतरकर वह हतप्रभ खड़ी रही। एक आठ साल का बालक उत्सुक होकर उसे देखे जा रहा था। साड़ी के आंचल से चेहरे का पसीना पोंछते हुए वह आगे बढ़ी। अचानक उसने देखा कि शिवेन की पत्नी यानी कि बड़ी भाभी उसकी ओर तेजी से बढ़ी चली आ रही है। सफेद बालों से भरा माथा और चेहरे पर ढेर सारी झुर्रियां। आते ही उसने पलाशी को दुलारकर स्नेहपूर्वक पूछा, ‘तू इतने दिनों बाद कहां से आई पुलि?’ फिर सहसा चिल्ला उठी, ‘पुलि आई है, पुलि आई है। बहू बाहर आओ।’

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सुनते ही दोनों बेटे की बहुएं बाहर आईं और पलाशी को बैठने के लिए कुर्सी दे दी।

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शिवेन भी निकल आया था। आंखों पर एक मोटा चश्मा, सिर के घने बाल पहले जैसे नहीं रहे। देह भी दुबला गई थी। पलाशी के पास आकर उसे पहचानने की कोशिश की। तब पलाशी ने स्वयं कहा, ‘भइया, मैं पुलि हूं।’

‘तू पुलि है? कितने दिनों बाद तुझे देखा।’ कहते-कहते वह जार-जार रोने लगा। उसने उसे गोद में खिलाया है। पलाशी का बचपन तो अधिकतर बुआ के घर में बीता है। शिवेन उसे गोद में उठाए गांव भर में घूमता रहता था। बड़ी भाभी की लहसुन से बनी पटसन के साग के लिए कितना रोना-धोना मचाती थी। विवश होकर उसके पिता रानीनगर से उसे यहां छोड़ जाते और फिर कई महीनों तक वह यहीं रहती। शिवेन के छोटे भाई नाड़ू ने यहीं गांव में कुछ दूरी पर अपना अलग घर बना लिया है और इस पैतृक घर में अब शिवेन ने अपनी गृहस्थी बसा ली है। पहले घर की आर्थिक दशा अत्यंत शोचनीय थी। यहां तक गर्भवती भाभी को एक समय पके कटहल पर ही गुजारा करना पड़ा था। अब दोनों बेटों में से एक चाय-व्यवसायी और दूसरे के पास एक छोटी-सी दुकान है। सो, अब पेट भर खाने की चिंता नहीं है।

हाथ-मुंह धो लेती है पलाशी। पक्के बरामदे के फर्श पर उसे बिठाकर बड़ी भाभी चावल और काली माह की दाल परोसती है। पलाशी खाते-खाते ही इच्छा जताती है, ‘भाभी, आज रात मेरे लिए पटसन के पत्तों का साग बना दोगी? मैं कल सुबह ही वापस चली जाऊंगी...।’ बड़ी भाभी को आश्चर्य होता है। वह प्रश्नों की झड़ी लगा देती है, ‘कल ही चली जाओगी? दो दिन रह नहीं सकती? इतने दिनों बाद आई हो, नाड़ू के घर नहीं जाओगी?’

‘नहीं, इस बार नहीं जा पाऊंगी।’ कहते हुए उसका गला रुंध गया। उसके पास समय नहीं है या फिर समय के गहरे जख्मों से वह अब तक उबर नहीं पायी है। उस दिन की घटना याद आते ही उसे भाभी पर भी क्रोध उमड़ता है। तब वह छोटी थी। उन दिनों गुलाबों वाली वेलवेट के कपड़ों का प्रचलन था, जो उस पर बहुत फबता था। सारा दिन लोगों के धान काटकर लौटने के बाद मां और बहू में होता झगड़ा देखकर थका-हारा शिवेन एक दिन अपने गुस्से पर काबू न रख सका। उसे जल्दी क्रोध नहीं आता परंतु जब एक बार आ जाए तो वह हिंस्रतम जीव में बदल जाता है। उस दिन भी उसने क्रोध में आकर अपनी मां पर एक बोतल मिट्टी का तेल उड़ेल दिया। उसी यंत्रणा, क्षोभ, दुःख और अभिमान में पलाशी की बुआ ने दो दिनों तक स्नान नहीं किया। उस घटना के ठीक तीन महीने बाद बुआ धीरे-धीरे अस्वस्थ होती चली गईं। घर में जमा पैसों से शहर में इलाज कराने के बावजूद वह ठीक नहीं हो पायी।

उस दिन शनिवार था। शाम के समय लोग हाट-बाजार से निपटकर जल्दीबाजी में घर लौट रहे थे क्योंकि वर्षा की संभावना बन रही थी। उस समय पलाशी अपनी बुआ के मुंह में चम्मच से पानी उड़ेल रही थी जबकि वह पी नहीं पा रही थी और होंठों के किनारों से पानी बहा जा रहा था। बुआ अस्पष्ट स्वर में कहे जा रही थी, ‘शायद अब जीवित नहीं रह पाऊंगी।’ इस पर उस दस वर्षीया बालिका ने सांत्वना देते हुए कहा था, ‘कुछ नहीं होगा तुझे बुआ। तुम ठीक हो जाओगी।’

अभाव भरी गृहस्थी में माता-पिता दोनों का दायित्व ले पाने की स्थिति में नहीं था शिवेन। सो दोनों भाइयों में झगड़ा होने लगा और अंततः फूफा नाड़ू के घर रहने लगे और बुआ शिवेन का पास। उसी झगड़े के बाद बुआ ने अकेले खाना बनाना-खाना शुरू कर दिया। पलाशी ने उन्हें चावल रांधकर उसे नमक-मिर्च का बघार देकर दो-तीन दिनों तक खाते देखा है। तब वह कुछ नहीं कर पायी थी बुआ के लिए। आज उसी के लिए हृदय में एक पीड़ा महसूस करती है वह और व्याकुलता में अक्सर आंसू भी छलक आते हैं। अतीत में लौटकर कुछ ठीक किया जा सकता तो वह आंखें बंद कर बुआ को स्वस्थ कर देती, उसका अभाव दूर कर देती। आज पचास की उम्र में स्वयं को भी बहुत अकेला महसूस करती है पलाशी। विवाह के बाद पति के संग कोलकाता चली गई थी और फिर वहां से दिल्ली। उस एकाकी शहर में अतीत एक अजगर की तरह उसे दबोचता रहता। मायके भी अब जाना नहीं हो पाता। यहां सिपाहीबाड़ी में आए भी बीस वर्ष हो गए थे। शहर में रहते हुए अब उसकी देह में भी कई बीमारियों ने आशियाना बना लिया है। जरा-सा चलने पर ही हांफने लगती है।

रात को बिस्तर पर लेटे-लेटे पलाशी सोचती रही कि एक-एक मनुष्य के चले जाने पर जैसे एक अध्याय समाप्त हो जाता है। उसका अपना पुत्र क्या कभी यह सब जान पाएगा या फिर इस घर में आएगा? क्या वह जान पाएगा कि वक्ष की इन पसलियों में कितनी पीड़ा है?

यह सब सोचते-सोचते सुबह के पक्षियों का कलरव आरंभ हुआ। गहन निद्रा से जाग उठे पेड़-पौधे। पलाशी भी उठ खड़ी हुई। उत्तर की सिहराती ठंड का अनुभव हो रहा था उसे। अपनी साड़ी के आंचल में उसने अपने आप को समेटा। सुबह के प्रकाश की नरम आभा में टगर के जंगली सफेद फूल चमचमा रहे थे। अपने पांव बढ़ाते हुए पलाशी घर के पिछवाड़े के उस आम के पेड़ तक जा पहुंची, जहां आंधी के बाद वह बुआ के साथ गिरे आमों को बटोरने आया करती थी। उसके छोटे लहरदार सरसों के फूलों जैसी फ्रॉक को बुआ आमों से भर देती। कालबैशाखी का तांडव रात भर चलता और पेड़ व उनकी टहनियां टूटती रहतीं। सुपारी, आम झड़ जाते। पौ फटने के पहले बुआ आकर आमों को उठाती और उसके पीछे पलाशी भी पहुंच जाती। उस बार अधिक आम नहीं लगे थे। अतः पलाशी के हाथ चार आम ही लगे परंतु बुआ ने उसे कुछ और थमा दिए।

यादों के इस सिलसिले के बीच शिशु-जन्म की तरह धीरे-धीरे प्रकाश फैलता चला गया। तभी अचानक एक चमगादड़ पेड़ पर से उड़ा और उसकी तंद्रा टूटी। बुआ का लगाया आम कई वर्षों का हो चुका है। उसके तने में कीड़े भी लगने लगे हैं। अब पहले की तरह फलता भी नहीं। बूढ़े पेड़ को स्नेह से स्पर्श करती है वह। उसकी देह पर फटे हुए छालों में पलाशी की उंगलियां फंसकर रह जाती हैं।

मूल बांग्ला से अनुवाद : रतन चंद ‘रत्नेश’

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