अजय सिंह राणा
कवि दिलीप कुमार पाण्डेय द्वारा रचित ‘उम्मीद की लौ’ काव्य संग्रह की कविताएं समाज में फैले अंधकार में केवल रोशनी मात्र नहीं हैं बल्कि एक आईना भी है जो अपने हिस्से के सच के साथ-साथ समाज में फैले सच के भी दर्शन करवाता है। कविताओं का दायरा विस्तृत है, जिसमें संवेदनाओं में लिपटे शब्द एक तरफ मानवीय प्रेम और नैतिक मूल्यों में होती कमी तो दूसरी ओर समाज में व्याप्त सामाजिक-आर्थिक विसंगतियों की तरफ इशारा करते हैं।
िबखरते रिश्तों को इंगित करती संग्रह की कुछ कविताएं वर्तमान समय का एक कड़वा सच है। भौतिकवादी युग के लोग, जिन्हें प्रेम और अपनेपन से कोई वास्ता नहीं, उन्हें कवि प्रेम की ओर लौटने का आग्रह करता है। ‘आओ हम प्रेम की डगर पर चलें’ काव्य संग्रह की पहली कविता ‘ज़िंदगी’ में वर्णित है कि वही पल शेष रहते हैं, जिनसे हमने प्यार किया जो मधुर थे। इसमें कवि प्रेम को छायादार वृक्ष की भांति मानते हैं। किसान के मिट्टी से रिश्ते को बयान करती कविता ‘कृषक’ और ‘मिट्टी’ भारतीय संस्कृति की जड़ों से जुड़ी हैं।
‘रोटी की जुगत में दिन-रात खटका रहा, पसीने से लथपथ दाएं-बाएं से मुक्ति बस चलता जा रहा है’
उनकी सभी कविताएं भारतीय संस्कृति से जुड़ी हैं। वहीं अंधेरों की बात करते-करते, उजालों का भी वर्णन करती हैं। कवि निराश नहीं है, उसे उम्मीद है कि यह अंधेरा जरूर छंटेगा और उसका आधार केवल मानवीय प्रेम होगा।
कारवां मिल गया, बहस और मुद्दे, खाली हाथ, आखरी गुलामी आदि कविताओं में आम आदमी की आवाज़ है और एक नि:शब्द पीड़ा भी। शोषण करने वाले लोगों के चेहरे से मुखोटों को नोचता यह काव्य संग्रह बेजोड़ है। कविताओं के विषयों में विविधता है। कविताओं के भाव और विविधता पाठकों में उत्सुकता बनाए रखती है।
पुस्तक : उम्मीद की लौ लेखक : दिलीप कुमार पाण्डेय प्रकाशक : बिम्ब प्रतिबिंब फगवाड़ा पृष्ठ : 140 मूल्य : रु. 185.