चन्द्र त्रिखा
ज्ञानपीठ-पुरस्कार संभवत: एकमात्र ऐसा सम्मान है, जिसके लिए चयन की प्रक्रिया सर्वाधिक लम्बी है। वर्ष 2021 के लिए यह सम्मान वयोवृद्ध असमी कवि नीलमणि फूकन और कोंकणी लेखक दामोदर माऊज़ो को दिया गया है।
इस अंचल के लिए यह जानना भी दिलचस्प होगा कि पंजाबी साहित्य के लिए यह सम्मान अब तक दो साहित्यकारों अमृता प्रीतम (1981- कागज़ तेकैनवस) और गुरदयाल सिंह (1999- मढ़ी दा दीवा) को मिल चुका है, लेकिन हरियाणवी को अभी भी इन सम्मानों की भाषा-सूची में शामिल नहीं किया गया। हिंदी में इस सम्मान को पाने वालों में सुमित्रानंदन पंत (1968- चिदम्बरा), दिनकर (1972- उर्वशी), अज्ञेय (1978- कितनी नांवों में कितनी बार), महादेवी वर्मा (1982- यामा), नरेश मेहता (1992), निर्मल वर्मा (1999), कुंवर नारायण (2005), अमर कांत (2009), श्री लाल शुक्ल (2009), केदार नाथ सिंह (2013), कृष्णा सोबती (2017) शामिल हैं। शिखर-लेखकों की यह सूची इस पुरस्कार के महत्व को दर्शाती है।
इस पुरस्कार की चयन प्रक्रिया काफी मुश्किल भरी होती है और कई महीनों तक चलती है। इस प्रक्रिया की शुरुआत अलग-अलग भाषाओं के साहित्यकारों, अध्यापकों, समालोचकों, प्रबुद्ध पाठकों, विश्वविद्यालयों, साहित्य तथा भाषाई संस्थाओं को प्रस्ताव भेजने के साथ होती है। जिस भाषा के साहित्यकार को पुरस्कार मिल जाता है, उस पर अगले तीन वर्षों तक कोई विचार नहीं किया जाता।
सचेतक रचनाकार
कोंकणी भाषा के गोआनी उपन्यासकार को उनकी विशिष्ट सृजनशीलता के साथ-साथ उनकी ‘एक्टिविस्ट’ भूमिका के लिए भी जाना जाता है। गोवा की विशिष्ट क्षेत्रीय अस्मिता और स्वतंत्र सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने के लिए उन्होंने सक्रिय आंदोलन भी चलाया और अनेक प्रदर्शनों का नेतृत्व भी किया। एक बार तो उन्हें एक प्रदर्शन के मध्य पुलिस की लाठियों से गहरे घाव भी मिले।
एक समय ऐसा भी था, जब गोवा को महाराष्ट्र में विलीन करने का प्रस्ताव चला था। ‘माऊज़ो’ का कहना था कि इससे न केवल गोवा की पहचान समाप्त हो जाएगी, बल्कि कोंकणी भाषा के अस्तित्व पर भी प्रश्नचिन्ह लग जाएगा और कोंकणी-साहित्य मराठी भाषा एवं साहित्य का उपनिवेश बन कर रह जाएगा।
वैसे दामोदर की प्राथमिक शिक्षा मराठी भाषा में हुई थी और साथ-साथ उन्हें पुर्तगाली भाषा का भी अध्ययन करना पड़ा था। रंगमंच और नाट्य लेखन में उनकी रुचि आरम्भ से ही थी।
दामोदर माऊज़ो ने गोवा लेखक संघ की भी स्थापना की और पणजी में व कुछ अन्य गोवानी कस्बों में कोंकणी साहित्योत्सव व चित्रकला प्रदर्शनियों का आयोजन भी उनकी गतिविधियों का एक स्वरूप है।
माऊज़ो, अब भी पत्नी शैली और तीन बेटियों के साथ अपने मोजोरडा गांव में ही रहते हैं। परिवार वालों एवं अन्य परिजनों के लिए ‘वह एक प्यारा पति, स्नेही नाना और विश्वसनीय मित्र हैं।’ वहां एक सरस्वती-समाज है, जिससे वह जुड़े हैं। उनकी मुस्कराहट (दोस्तों के अनुसार) जादुई है। और इन्हीं ढेर गुणों के कारण गोवा के लोग उन्हें प्यार भी करते हैं।
वह कोंकणी मंडल के सभापति रह चुके हैं। 1985 में सम्पन्न हुए अखिल भारतीय कोंकणी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता भी दामोदर माऊज़ो ने की थी।
उनकी कृतियों में चार कहानी संग्रह : गानथन (1971), जागराना (1975), रुमादफूल (1989), भुरगी मुगेली ती (2001); तीन उपन्यास: कारमेलीन (1981), सूड (1975), सुनामी सायमन (2001); काणी एक खोमसाची (1976) में लिखे उसके बच्चों की कहानी पुस्तक है। एक आशिल्लो बाबुलो बाल (1977) उपन्यास है। चीत्रांगी (1993) बाल कहानियों का संग्रह है। दो जीवनियां : ओशे घोडलेम शैनोय गोयबाब (2003), उच हावेस उच माथेन (2003)।
उनकी चर्चित कृति कारमेलीन को हिन्दी, मराठी, कन्नड़ा, बंगाली, अंग्रेजी, पंजाबी सिंधी, तमिल, उड़िया और अन्य भाषाओं में साहित्य अकादमी ने अनूदित भी कराया और प्रकाशित भी किया। ‘दे आर माय चिलड्रन’ के अंग्रजी बाल कहानियां के संग्रह को भी अकादमी ने ही प्रकाशित किया था।
1983 में इसी उपन्यास कारमेलीन के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार (कोंकणी) से सम्मानित किया गया था। दो बार कोंकणी भाषा मंडल पुरस्कार प्राप्त किया, दो बार गोवा कल अकेडमी पुरस्कार भी प्राप्त किया, जनगंगा पुरस्कार से सम्मानित भी हुए तथा विश्व कोंकणी केन्द्र साहित्य पुरस्कार भी मिला। वह भारतीय साहित्य में कोंकणी के एक ऐसे सशक्त हस्ताक्षर हैं, जिन्हें कोंकणी के लोग बेहद प्यार करते हैं।