आंसुओं के धुंधलके के बीच उसकी नजर फर्श पर पड़ी छोटी-छोटी सुंदर लाल-पीली चप्पलों पर टिक गईं, उसे याद आया कि जब वह गुल्लू को सीधे बिस्तर से उठाकर ले गया था तो उसकी चप्पलें वहीं कमरे में ही छूट गई थीं। उसके हृदय में गुल्लू के नन्हे-नन्हे कदमों की आहट गूंजने लगी। भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ा। रक्त कुलांचे मारने लगा। उसे लगा जैसे यह गुल्लू ही है जिसे वह गले से लगाकर खूब प्यार लुटाएगा। उसने दोनों चप्पलें उठा लीं और उन्हें अपनी छाती से लगा लिया। वह मन ही मन गुल्लू से माफी मांगने लगा।
मां बाहर हॉल में खड़ी गुल्लू को बुलाती रही, लेकिन वह सुनी-अनसुनी करता रहा। नीरू यह सब चुपचाप देख-सुन रही थी, उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था। उसके इसी भावशून्य मुख को देखकर संयम ने गुल्लू को उसकी मां के पास जाकर लेटने को कहा। लेकिन गुल्लू मानने को तैयार नहीं था। वह कहता, ‘कितने दिन से मैं आपके पास नहीं सोया…। आज! बस आज! सोने दो प्लीज! फिर जिद नहीं करूंगा! फिर एक महीने बाद... पक्का से! बहुत-बहुत दिन बाद... प्लीज! प्लीज!’ वह अपने नन्हे-नन्हे हाथों को फैलाकर समय अंतराल बताने की कोशिश करता और ढेरों मिन्नतें करता, ‘सिर्फ आज चाचू प्लीज! सिर्फ आज...!’
पहले वह जब चाहे चाचू के पास सो जाया करता था; बल्कि कई बार तो चाचू उसे खुद ही पुचकारकर अपने साथ ले जाते।
खैर, आज जब गुल्लू कुछ ज्यादा ही जिद करने लगा तो संयम तनिक असहज-सा हो गया। फिर यह सोचकर कि यदि इतने बड़े बिस्तर पर वह छोटा-सा बच्चा एक रात के लिए उनके साथ ठहर भी जाए तो कौन-सा पहाड़ टूट पड़ेगा...? और हां! इसी बहाने नीरू भी धीरे-धीरे घर के बच्चों के साथ घुलमिल जाएगी व बच्चों के जरिए घर के सदस्यों में भी उसकी जल्दी ही पैठ बन जाएगी, ‘आज हमारे साथ ही रह लेगा ये...’ कहते हुए संयम ने हिचकिचाहट के साथ नीरू की तरफ देखा। उसकी बात समाप्त भी नहीं हुई थी कि नीरू ने अपना तकिया पटका और बिना कुछ कहे मुंह फेरकर लेट गई। संयम भी अनकहे सब कुछ समझ गया।
इस बीच गुल्लू ने बिस्तर पर अपनी जगह हथिया ली थी। इससे संयम की असहजता और बढ़ गई। वह बड़ी ही दारुण और वात्सल्य मिश्रित दृष्टि से गुल्लू को निहारने था। वहीं चाचू के मन में उठ रहे बवंडर से अनजान गुल्लू ने चाचू को अपनी ओर नजरें गढ़ाए देख उन्हें कसकर गले लगा लिया। संयम घड़ीभर के लिए सब कुछ भूल गया। वह गुल्लू का सिर सहलाने लगा। गुल्लू और चाचू दोनों एक-दूसरे से लिपटे कुछ देर यूं ही बैठे रहे।
उधर नीरू अभी भी आंखें मूंदे लेटी पड़ी थी। संयम घोर दुविधा में था। उसने गुल्लू को धीरे से अपनी छाती से अलग किया और अपने होंठों पर उंगली रखते हुए, गुल्लू को कुछ देर चुप रहने का इशारा कर नीरू का कंधा हिलाया। गुल्लू भी चाचू के इशारे को समझते हुए अपनी तर्जनी को अपने होंठों से सटाए चुपचाप बैठा रहा।
नीरू ने जैसे ही अपनी गर्दन पीछे घुमाई, उसके तमतमाए हुए चेहरे का तनाव पूरे कमरे में पसर गया। संयम उस भयंकर तनाव को क्षण भर भी बर्दाश्त न कर सका। उसने झट से नीरू का कंधा छोड़ दिया और तुरंत दूसरी तरफ पलट गया। वहां गुल्लू अपनी ही दुनिया में मस्त, स्टूल पर पड़ी चाचू की कलम से खेल रहा था। उसके लिए कमरे के उस बोझिल वातावरण का कोई अस्तित्व नहीं था। लेकिन संयम के पास गुल्लू की तरह बचपने का बेशकीमती उपहार कहां था भला।
संयम की आंखें अनायास ही सजल हो उठीं। क्रोध और ग्लानि से उसका सिर फटने लगा। वह धड़ाम से पलंग पर पसर गया और काफी देर तक यूं ही आंखें खोले चित लेटा रहा।
चाचू को यूं पसरा देख गुल्लू को न जाने क्या सूझी, वह उठ बैठा और उनके सपाट गालों पर अपनी कोमल हथेलियां फेरने लगा। संयम की जैसे सांसें लौट आईं। उसने फिर से हिम्मत जुटाई, ‘आज रहने दो बेचारे को। प्लीज!’
नीरू ने इस बार भी तुरंत हाथ झटक लिया और अपने पैरों को मोड़ते हुए खुद को एक ऐसे वृत्ताकार गोले में तब्दील कर लिया, जिसमें अनुनय-विनय के लिए कोई छिद्र शेष न था। खुद को सिकोड़ते हुए नीरू ने बड़ी रुखाई से इतना भर कहा, ‘फिर यही तुम्हारे साथ रह लेगा। मैं बाहर चली जाती हूं।’
संयम धक्क रह गया। उसे नीरू के नाराज होने का अंदेशा तो था, लेकिन ऐसी बेरुखी और निर्दयता का बिल्कुल भी अंदाजा न था।
‘यह पांच साल का बच्चा किसी का क्या बिगाड़ सकता है, भला। अगर आज यह इसी कमरे में रह गया तो कौन-सा पहाड़ टूट पड़ेगा। अगर यह हमारा अपना बच्चा होता तो भी क्या हम इसे निजता के नाम पर बाहर कहीं सुला देते! बच्चों में भी कोई अपना-पराया होता है भला!’ उसका सिर गुस्से से भन्ना गया।
उधर कुछ देर कमरे में पड़ी छोटी-मोटी चीजों से खेलने के बाद गुल्लू ऊब गया और चुपचाप बिस्तर पर एक कोने में लेट गया। वहां लेटे-लेटे वह अपनी छाली (निर्मल)आंखों से चाचू पर नजर गढ़ाए चाचू का इंतजार करने लगा। वैसे ही जैसे वह अक्सर पहले किया करता था। और फिर चाचू अपनी किताबें छोड़कर उसे अपनी छाती से चिपका लेते। उसे थपकियां देते। उससे तुतलाहट भरी जुबान में बतियाते और तब तक ऐसा करते रहते जब तक की वह गहरी नींद सो न जाता।
वैसे, पहले जब भी गुल्लू को चाचू के पास सोना होता, वह चुपचाप उनके कमरे में आकर लेट जाता, फिर मां या पापा कोई कितना भी बुलाये वह साफ कह देता था, ‘मैं आज चाचू के पास ही सोऊंगा। बस…!’ सोऊंगा मतलब सोऊंगा! वह अपना निर्णय सुना देता। चाचू भी उसे खूब पुचकारते। प्यार करते। लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ। बल्कि, इस बार चाचू ने गुल्लू को उठाया, उसे ज़ोर से गले लगाया और यूं ही छाती से झुलाते हुए हॉल के रास्ते बाहर उसकी मम्मी के पास छोड़ आए।
जैसे ही चाचू उसे लेकर बिस्तर से उठे वह समझ गया कि कुछ गड़बड़ है। वह चिल्लाने लगा, ‘चाचू! प्लीज, चाचू! प्लीज! प्लीज...! नहीं मैं नहीं जाऊंगा! मैं आपके साथ ही सोऊंगा! प्लीज! प्लीज! प्लीज! बस आज! केवल आज! प्लीज!’
लेकिन संयम पत्थर बन चुका था।
गुल्लू मम्मी के पास पहुंचकर भी बड़बड़ाता रहा, ‘चाचू गंदे! चाचू गंदे! मैं आपसे कट्टी हूं चाचू! कट्टी! एकदम कट्टी! अब मैं कभी आपके पास नहीं आऊंगा। कभी... नहीं! कभी नहीं! आप गंदे! चाचू गंदे!’ मम्मी उसे डांटती रही, ‘ऐसे नहीं कहते गुल्लू। बात मानते हैं। सो जा मेरा बच्चा...! मेरा गुल्लू...!
नन्हा गुल्लू छटपटाता रहा, बड़बड़ाता रहा, चिल्लाता रहा; लेकिन सब बेकार।
कुछ देर यूं ही शोर मचता रहा। फिर एक अंतिम आवाज आई; चटाक! और फिर घोर निशब्दता।
संयम चुपचाप अपने बिस्तर पर आकर लेट गया। बत्ती बुझ चुकी थी, लेकिन खिड़की पर टंगे झीने परदों से छनकर आ रही हल्की दूधिया रोशनी में सब कुछ साफ दिखाई दे रहा था। नीरू उसी तरह सिकुड़कर लेटी हुई थी। पीठ के बल लेटे संयम की आंखे छत से लटककर गोल-गोल चक्कर काटते पंखे पर टिक गई। पंखे की गति अत्यधिक तेज होने के कारण उसकी पंखुड़ियां आपस में गडमड हो रही थीं और तेजी से आते-जाते विचारों के कारण संयम की मति भी। वह गंभीर चिंतन में डूबना चाहता था; लेकिन एकाग्रता नहीं जुटा पा रहा था। गोल-गोल पंखे के साथ उसका सिर भी घूमने लगा। उसे लगने लगा जैसे सारी छत उसके ऊपर गिर जाएगी; या पंखे की खट–खट-खट-खट उसको बधिर बना देगी।
उसके मस्तिष्क में विचारों की बाढ़-सी आ गई थी। ‘एक ओर तीन माह पूर्व आई लड़की और दूसरी ओर तीस साल से सुख-दुख का साथी परिवार!’ मैं मानता हूं कि मुझे एक महीन संतुलन बनाकर चलना होगा! लेकिन मैं यूं अचानक इस भरे-पूरे परिवार को पराया भी तो नहीं कर सकता! इन्हीं के इर्दगिर्द तो मेरे इस व्यक्तित्व और इन सफलताओं ने आकार लिया है, जिनसे प्रभावित होकर इस लड़की ने मुझे अपना जीवन-साथी चुना है’।
‘...इस लड़की के मन में भी तो गैर होने का भाव नहीं भरने दे सकता। यह भी तो मेरे लिए अपना घर-परिवार छोड़ कर आई है।’
चार-पांच वर्ष का एक अबोध बालक जो कल तक अपने चाचू के जीवन का अभिन्न अंग था, क्या उसे चंद दिनों में ही काटकर फेंक पाना संभव था? समय के साथ-साथ इंसान का वो हर अंग जिसकी उपयोगिता नहीं रहती वह स्वयं ही विलुप्त हो जाता है। यह तो सृष्टि का नियम ही है। फिर इतनी जल्दबाज़ी क्यों...?
संयम सोचता रहा, ‘...क्या मेरा जीवनसाथी मुझे इन बदलावों के साथ सामंजस्य बिठाने का समय भी नहीं देगा? क्या मेरे अंगों को इस प्रकार बेरहमी से नोच डालना अन्याय की श्रेणी में नहीं आएगा?’ उसके मन में तमाम भले-बुरे खयालात उभरने लगे। उसे एक अजीब-सी जकड़न महसूस होने लगी। उसे लगा जैसे उसने खुद ही कोई जंजीर पहन ली हो।
उधर, दीवार पर टंगी घड़ी ने दस, ग्यारह, बारह, एक बजा दिए। संयम जागता रहा, इस इंतजार में कि नीरू अब पलटेगी, तब पलटेगी। उसे सांत्वना देगी, उसे समझाएगी कि ये बदलाव एक न एक दिन तो स्वीकार करने ही होंगे, तो जल्दी से जल्दी क्यों नहीं? लेकिन नीरू निष्प्राण वर्तुल धनुष की तरह पड़ी रही। आधी रात बीत जाने तक भी जब नीरू यूं ही पत्थर बनी रही तो संयम ने बड़ी हिम्मत जुटाकर कुहनियों के बल उचककर उसके चेहरे पर नजर मारी। शायद वह सो चुकी थी।
कमरे में घोर सन्नाटा पसरा हुआ था। वह बेचैन हो उठा। दूसरे कमरे से भी आवाजें आनी बंद हो चुकी थीं। शायद वे भी सो चुके थे। सब सो चुके थे।
जाग रहा था तो केवल संयम। एकदम अकेला! नितांत एकाकी! उसे लगने लगा मानो वह अपने ही परिश्रम से पाई-पाई जोड़कर बनाए गए घर में कोई शरणार्थी हो। उसकी इच्छाएं और जरूरतें किसी और की आज्ञा या सहमति की मोहताज हों।
उसका हृदय अनंत गहराइयों में धंसने लगा। और उन गहरे अंधेरे कुओं से धाराएं फूटने लगीं। अश्रुधाराएं।
इस समय उसे सबसे अधिक जरूरत अगर किसी चीज की महसूस हो रही थी तो वह थी अपनों की; अपने जीवन साथी की। उसका मन कराह रहा था। उसकी बस एक ही चाहना थी... नीरू उठे। उससे बात करे। ऊपर-ऊपर से ही सही, उसे सांत्वना दे। सहारा दे। गले से लगाए। उसे समझाए कि यह परिवर्तन अपरिहार्य है। यह देर-सवेर होना ही है।
वह जितनी बार भी नीरू की तरफ देखता। उसे खुद के ही बिस्तर पर निष्ठुर निद्रा में निमग्न देख उतनी ही मौतें मर जाता।
घंटों से रह रहकर बहती शांत अश्रुधारा अब अनवरत सिसकियों में बदल गईं। पूरा कमरा संयम के साथ सुबक पड़ा। नीरू की नींद टूट गई। नीरू अधमुंदी अवस्था में उठ बैठी।
संयम को इस प्रकार सुबकते देख पहले तो उसने गंभीर आश्चर्य प्रकट किया और फिर अचानक गुस्से से तिलमिला उठी। उसकी आंखों का रंग बदल गया। अपनी लाल हो चुकी आंखों से जैसे ही उसने संयम को घूरा, उसकी सिसकियां थम गईं और सूं-सूं करके चलती सांसें भी चुप हो गईं।
‘इसमें रोने वाली क्या बात है? मैंने पहले ही कहा था मुझे बैगेज़ नहीं चाहिए। अब फालतू के इमोशनल ड्रामे बंद करो और सो जाओ। मेरी नींद खराब मत करो मुझे भी सुबह ऑफिस जाना है।’ नीरू ने उंगली नचाते हुए जिस प्रकार संयम को धिक्कारा वह सच में ग्लानि की गर्त में डूब गया। उसे लगा जैसे उसे कई थप्पड़ एक साथ पड़ गए हों।
नीरू ने उसकी तरफ देखे बिना ही अपने कानों को तकिये से ढकते हुए ए.सी. का तापमान घटाया और करवट बदल ली। संयम का मुंह खुला का खुला रह गया। अनाप-सनाप ख़यालों ने आ-आकार उसके मन में बवंडर मचाना शुरू कर दिया। उसने झुंझलाहट से भरकर मुट्ठियां भींच लीं और दांत पीसते हुए बिस्तर पर हाथ-पांव चलाने लगा। गुस्से के कारण उसका पूरा बदन कांपने लगा। वह पसीने से तरबतर हो गया। उसके मन में ललकार और धिक्कार की दौड़ शुरू हो गई। वह किसी खिजे हुए सर्प की भांति फुफकारने लगा।
नीरू डर के मारे बैठ गई। और सबल होते हुए भी कुछ न कर सकने की विवशता से निराश संयम किसी निर्जीव केंचुली की तरह पसर गया। नीरू भी चुपचाप वापस लेट गई।
अब उस कमरे में संयम का दमघुटने लगा, ‘यह बैगेज़ नहीं मेरा परिवार है! मेरे अस्तित्व का जीता-जागता हिस्सा है!’ उसका मन चीखना चाह रहा था। लेकिन वह विवश था। वह वहां से बाहर कहीं दूर भाग जाना चाहता था, ज़ोर से रो देना चाहता था। लेकिन यह संभव न था। वह खीझ उठा।
खीझ के मारे बाहर दौड़ जाने के लिए उठा। दरवाजे तक पहुंचा। लेकिन वहां अपने पूरे परिवार को लेटा हुआ देख ठिठक गया। आखिर, थक-हार कर लौटा, चुपचाप आंखें बंद कीं और बिस्तर पर पसर गया। लेटे-लेटे उसे गुल्लू के ख़यालों ने घेर लिया, उसे लगा जैसे वह छोटा-सा बच्चा अभी भी उसकी छाती से चिपका हुआ है, चाचू-चाचू कहकर उसे चूम रहा है। उसके बालों से खेल रहा है। उससे तमाम मासूम सवाल कर रहा है। संयम की आंखें भर आईं।
आंसुओं के धुंधलके के बीच उसकी नजर फर्श पर पड़ी छोटी-छोटी सुंदर लाल-पीली चप्पलों पर टिक गईं, उसे याद आया कि जब वह गुल्लू को सीधे बिस्तर से उठाकर ले गया था तो उसकी चप्पलें वहीं कमरे में ही छूट गई थीं। उसके हृदय में गुल्लू के नन्हे-नन्हे कदमों की आहट गूंजने लगी। भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ा। रक्त कुलांचे मारने लगा। उसे लगा जैसे यह गुल्लू ही है जिसे वह गले से लगाकर खूब प्यार लुटाएगा। उसने दोनों चप्पलें उठा लीं और उन्हें अपनी छाती से लगा लिया। वह मन ही मन गुल्लू से माफी मांगने लगा।
उसके कानों में अब बस एक ही आवाज सुनाई दे रही थी, ‘चाचू-चाचू! चाचू...!’

