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सुर्ख़ गुलाब

लघुकथा

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विभा रश्मि

लेखा पति का इंतज़ार बड़ी शिद्दत से कर रही थी। प्यार के इज़हार का स्पेशल दिन जो था आज। वो पति के साथ बिताए प्रेमिल क्षणों के बारे में सोच रही थी।

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एक बेबात की नोक-झोंक के बाद, बेटी गुड्डन मम्मी-पापा के बीच अबोला देख रही थी।

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वो ऑफ़िस से देर से लौटा। उसने अपनी कई मजबूरियां लेखा को सुनाते हुए गुड्डन को गिना दीं।

इस बार कंपनी ने वेतन अपरिहार्य कारणों से वितरित नहीं किया था ।

वो आॅफ़िस से लौटते हुए गुलाब खरीदने गया था। शाम तक सारे गुलाब के फूल बिक चुके थे। बची-बचाई बासी पंखुड़ियों के मनमाने भाव मांग रहा था फ्लोरिस्ट। प्यार के इज़हार को कॉमर्शियल रंग में रंगा देख उसे दुख हुआ...।

‘धत्त नहीं लेता।’ पाॅकेट भी हल्की हो हक्ला रही थी आज...।

‘इसकी क्या ज़रूरत? केवल मनी वेस्टेज...।’ खुद के तर्क और उत्तर भी।

पत्नी ने पुलकित मन से इंतज़ार किया था। पर पति देर से घर पहुंचा और वो भी खाली हाथ हिलाते हुए। दोनों के बीच लंबी चुप्पी देख गुड्डन को गुलाब के फूल, देने-लेने की पड़ोसी आंटी की बात अचानक याद हो आई।

उसने स्कूल बैग से ड्राइंग-काॅपी निकालकर ममी-पापा के बीच रख दी, जिस पर सुर्ख़ लाल गुलाब बना था।

चुप्पी जोर से तड़की और खिलखिलाहट, कूदकर उनके बीच बैठ गई।

गुड्डन ममी-पापा के गले में प्यार से बांहें डालकर झूल गई...।

प्यार का त्योहार मनाने के लिये किस कमबख्त को नकली-असली फूल की ज़रूरत थी अब। लेखा को प्यार से निहारते हुए उसने गुड्डन की काॅपी में बड़ा सा ‘गुड’ दे दिया था।

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