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अनंत पथ के यात्री

कविता
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हेमधर शर्मा

जीवन भर रहा अपूर्ण मगर,

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कोशिश करता ही रहा सदा,

बन पाने की सम्पूर्ण।

जिंदगी मेरी अनथक

संघर्षों की गाथा है।

पर्वत शिखरों की तरह

मिले थे ऐसे बिंदु अनेक,

जहां पर लगा कि दे दूं

यात्रा को विश्राम,

मान लूं मंजिल उन शिखरों को।

लेकिन रुक ही पाया नहीं,

देर तक कहीं,

न जाने कैसी थी बेचैनी,

बस चलता ही रहा निरंतर,

कोशिश करता रहा कि अपनी

कर लूं कमियां सारी दूर,

मगर जितना ही बढ़ता गया,

राह उतनी ही मिलती गई।

परिष्कृत जितना होता गया,

हमेशा उतना लगता गया

कि इससे भी ज्यादा

निर्मल खुद को कर सकता हूं!

सोचा करता था कभी,

कि करके अथक परिश्रम जीवन भर,

चिर निद्रा में जब हो जाऊंगा लीन,

मिटा लूंगा थकान तब सारी।

लेकिन लगता है अब,

नहीं मृत्यु भी हो सकती अंतिम पड़ाव,

मरते ही फिर से लेना होगा जन्म,

दौड़ में नए सिरे से

जुटना होगा फिर से,

जैसे सूरज-चांद सितारे

लेते नहीं एक पल की खातिर विश्राम,

चलेगा जब तक यह ब्रह्मांड,

हमें भी बिना रुके

चलना होगा अनवरत,

कि मंजिल मृग मरीचिका होती है,

चलना ही शाश्वत होता है।

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