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बेहद गहरे अर्थ लिये विचारोत्तेजक कविताएं

सुरजीत सिंह पुस्तक : दुश्चक्र में स्रष्टा लेखक : वीरेन डंगवाल प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 142 मूल्य : रु. 199. हिंदी कवि वीरेन डंगवाल का प्रस्तुत कविता संग्रह ‘दुश्चक्र में स्रष्टा’ साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित...

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सुरजीत सिंह

पुस्तक : दुश्चक्र में स्रष्टा लेखक : वीरेन डंगवाल प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 142 मूल्य : रु. 199.

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हिंदी कवि वीरेन डंगवाल का प्रस्तुत कविता संग्रह ‘दुश्चक्र में स्रष्टा’ साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित है। संग्रह में संकलित कविताएं जहां व्यवस्था पर गहरा कुठाराघात करती हैं वहीं आशावादी दृष्टिकोण से ओतप्रोत हैं।

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गढ़वाल में जन्मे वीरेन डंगवाल ने आधुनिक हिंदी कविता के मिथकों और प्रतीकों पर वृहद अध्ययन किया है। इसके साथ ही वे हिंदी और अंग्रेजी की पत्रकारिता भी करते हुए विभिन्न अखबारों से संबद्ध रहे। विश्व के कुछ एक प्रसिद्ध कवियों की रचनाओं का रूपांतरण भी उन्होंने किया। प्रस्तुत संग्रह की कविताएं बेशक गहरे अर्थों को लेकर चलती हैं, परंतु साधारण पाठक कविताओं में रसात्मकता की कमी महसूस करता है। फिर भी कविताएं आशावादी दृष्टिकोण रखती हैं। उनके आशावादी दृष्टिकोण की एक सशक्त झलक उनकी कविता ‘शमशेर’ में कुछ तरह से मिलती है :- ‘रात आईना है मेरा/ जिसके सख्त ठंडेपन में भी/ छुपी है सुबह/ चमकीली साफ।’

इसी तरह से ‘रात की रानी’ कविता में कवि ने रात का सुरम्य दृश्य इस प्रकार से प्रस्तुत किया है :- ‘एक सुरीली घंटी के साथ/ जैसे एकदम खिल पड़ती है रात/ एक भीनी महक जो बनी रहती है चौबीसों घंटे/ जैसे एक चोर नशा/ जैसे प्रेम सदा-सा गोपनीय।’

मनुष्य द्वारा प्रकृति के संहार को लेकर कवि अपनी कविता में उद्गार कुछ यों प्रस्तुत करता है :- ‘कहां से चले आए ये गमले सुसज्जित कमरों के भीतर तक/ प्रकृति की छटा छिटकाते/ जबकि काटे जा रहे थे जंगल के जंगल/ आदिवासियों को बेदखल करते हुए?’

अपना घर जुटाने की फिराक में आम आदमी जीवनपर्यंत संघर्ष करता रहता है। तब कहीं जाकर उसे घर मयस्सर होता है। इसी पीड़ा को वीरेन डंगवाल ने अपनी कविता में इस तरह से उतारा है :- ‘आखिरकार मुझे एक घर मयस्सर हुआ/ यह घर सारा जीवन मेरे साथ चलेगा/ बैंक की किश्तों की तरह।’

कंप्यूटर युग की शुरुआत का जहां आधुनिकता के पहरेदारों ने जी खोलकर स्वागत किया, वहीं कवि ने कंप्यूटर के प्रति अपनी वितृष्णा को कुछ इस तरह से व्यक्त किया :- ‘वातानुकूलित/ स्वच्छता/ सुरीली कट्ट टक/ जूते चप्पल बाहर/ सिगरेट हरगिज नहीं/ पान थूकना तो बाहर जाओ/ ऐसी नक्शेबाज मशीन पर मैं लानत भेजता हूं।’

व्यवस्था पर तीखा कटाक्ष और असहाय जन की विवशता को कवि ने जोरदार शब्दों में कविता के माध्यम से व्यक्त किया है। जैसे :- ‘बावर्दी बेवर्दी हत्यारे/ रौंद रहे गांव-गांव- नगर- नगर/एक प्रेतलीला-सी जैसे चलती है लगातार/ दिल को मुट्ठी में भींचे/ घसीट लेता चला जाता है कोई।’

वैश्वीकरण के इस युग में जन-साधारण की व्यवस्था के प्रति खीझ की एक और बानगी कवि ने यहां प्रस्तुत की है :- ‘उन खुशबुओं से कोई ऐतराज नहीं मुझे/ जो वैश्वीकरण के इन दिनों इतनी भरपूर हैं/ कि ठसाठस भरी बसों में भी/ गला दबोच लेती हैं।’ ठहरी हुई जिंदगी को कवि ने इन शब्दों में कविता के माध्यम से उकेरा है :- ‘अजीब शख्स थे तुम/ ताउम्र एक भोंडी हंसी हंसते रहे/ जिंदा जले/ मरे तो बहाए गए/ ऐसे ही उटकर्मों से बना था तुम्हारा संक्षिप्त जीवन।’ संग्रह में सभी कविताएं गहरे और व्यापक अर्थ रखती हैं।

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