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उड़ान की कसक

लघुकथा
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रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

चार बज चुके थे। डाकिए के आने की उम्मीद अब नहीं रही थी। मनीआर्डर आया होता, तो वह ज़रूर आता। आत्माराम ने ठण्डी सांस ली। कबूतर–कबूतरी और बच्चा सुबह तक घोसले को आबाद किए हुए थे। बाहर से दाना लाकर जब वे घोसले में लौटते, बच्चा अपनी नन्ही-सी चोंच खोलकर कभी कबूतर की ओर मुड़ जाता, कभी कबूतरी की ओर। चुग्गा लेकर वह उनके पंखों के नीचे दुबककर बैठा रहता।

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अब थोड़ा–सा उड़ने भी लगा था। लकवे के कारण टेढ़े हुए मुख को ऊपर उठाकर आत्माराम भरी–भरी आंखों से उन्हें देखते रहते। उस समय वे भी अपने को कबूतर समझने लगते। अकेला और तन्हा कबूतर।

सूर्यास्त हो गया। कबूतर घोसले में आ गया। थोड़ी देर बाद कबूतरी भी आ पहुंची। दोनों काफी देर तक गुमसुम–से बैठे रहे। कबूतरी ने अपनी ढीली और उदास गर्दन कबूतर की गर्दन से सटा ली। धुंधलका छाने लगा। बच्चा नहीं लौटा। आत्माराम का हृदय भीग गया। बेटे ने गांव में आना साल–भर पहले ही बन्द कर दिया था। अब पैसा भेजे भी तीन महीने हो गए।

आज घोसले का सूनापन उसे बेचैन किए दे रहा था। नन्हा बच्चा उड़कर कहीं और चला गया था।

दो गर्म–गर्म आंसू एकदम लावे की तरह ढुलक आए। वह और अधिक उदास हो गया।

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