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कटाक्षों में उभरा समाज का सच

पुस्तक समीक्षा
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भारतीय हिन्दी हास्य-व्यंग्य शायरी में अशोक ‘अंजुम’ को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। कविता, दोहा, नाटक और हास्य-व्यंग्य में यह उनकी बत्तीसवीं पुस्तक पाठकों के समक्ष है। गीत, मुक्तक और ग़ज़ल जैसी विधाओं में हास्य-रस घोलना कोई छोटी बात नहीं है। ग़ज़ल जैसी कठिन विधा में व्यंग्य-प्रहार और उससे भी बढ़कर, छोटी बहर में तीक्ष्ण चोट करना लेखक की दक्षता का प्रमाण है।

इन सभी ग़ज़लों में आज के युग की गिरगिटिया संस्कृति, नेतागण के बदलते तेवर, सामाजिक विघटन, पुलिस-प्रशासन की कारगुज़ारी का कड़वा सच और आम भारतीय की व्यथा को बड़ी खूबसूरती से प्रस्तुत किया गया है।

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उदाहरण :-

‘खेल के परिणाम सारे फिक्स हैं,

फिक्स हैं इनाम — सारे फिक्स हैं।’

इन ग़ज़लों में देश की व्यवस्था—नीचे से ऊपर तक—भाई-भतीजावाद, चालबाज़ियां, दुष्कर्म, अराजकता, गुंडागर्दी, बेबसी, लूटपाट और मानवीय संबंधों की चीरफाड़ को व्यंग्यात्मक दृष्टिकोण से बखूबी चित्रित किया गया है। लेखक के अधिकांश कटाक्ष भारतीय राजनीति, नेतागण और उनके कारनामों पर केंद्रित हैं। लेखन शैली और शब्दचयन स्पष्ट हैं, लेकिन गहरी चिंतनीय चोटों के माध्यम से समाज के वर्तमान दर्द को उजागर करते हैं।

उदाहरण :-

‘तुम दलबदलू पार, तुम्हारे जलवे हैं,

कुर्सी पर हर बार, तुम्हारे जलवे हैं।

सचमुच में ही बड़े घाघ लीडर हो तुम,

कोई हो सरकार — तुम्हारे जलवे हैं।’

सहज बोध में सांकेतिक शब्दों द्वारा रदीफ़-क़ाफ़िया को एक नए अंदाज़ में गढ़ा गया है, जो पाठक को गुदगुदाते हुए सोचने पर भी विवश करता है। कलम की पैनी धार नश्तर की तरह चुभती चली जाती है।

पुस्तक : उसने कहा कि... धत‍्!! लेखक : अशोक ‘अंजुम’ प्रकाशक : श्वेतवर्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 108 मूल्य : रु. 249.

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