Tribune
PT
Subscribe To Print Edition About the Dainik Tribune Code Of Ethics Advertise with us Classifieds Download App
search-icon-img
Advertisement

हिंदी आलोचना के मुखर स्त्री स्वर का मौन होना

स्मृति शेष : डॉ. निर्मला जैन

  • fb
  • twitter
  • whatsapp
  • whatsapp
Advertisement

डॉ. राजेन्द्र गौतम

सोलह अप्रैल, 2025 को 93 वर्ष की अवस्था में प्रसिद्ध आलोचक डॉ. निर्मला जैन हम से विदा हो गईं। इसके साथ हिन्दी आलोचना का मुखरतम स्त्री-स्वर मौन हो गया। पिछली सदी के छठे दशक में जब डॉ. नगेंद्र दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी-विभाग को देश का सर्वश्रेष्ठ विभाग बनाने के उद्देश्य से दिल्ली के बाहर के अनेक विद्वानों को जोड़ रहे थे, तब जिस महिला का नाम एक प्रखर अध्यापिका और आलोचक के रूप में उभरा, वह थीं खांटी दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोडक्ट और उन्हीं की शिष्या निर्मला जैन। यहीं से एम.ए., फिर यहीं से पी-एच.डी. और डी.लिट! वर्ष 1956 में एम.ए. करते ही उसी वर्ष खुले लेडी श्रीराम कॉलेज में अध्यापन आरंभ किया, फिर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में लंबी सेवाएं दीं, जहां वे प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष रहीं! न झुकने, न दबने वाली निर्मला जैन ने सिर ऊंचा कर अपनी साहित्यिक मान्यताओं को बुलंद किया। प्रतिक्रियावादी शक्तियों का विरोध भी झेला लेकिन वे अपने पक्ष के लिए अपने समय के दिग्गजों से लोहा लेती रहीं।

Advertisement

डॉ. निर्मला जैन के आलोचना-कर्म से मैं एम.ए. के दौरान परिचित हुआ था। तब तक उनके ‘रस सिद्धांत और सौन्दर्यशास्त्र’, ‘प्लेटो के काव्य सिद्धांत’ और ‘आधुनिक हिन्दी काव्य में रूप-विधाएं’ ग्रंथों का प्रकाशन हो चुका था। अपने शोधकार्य में इनसे बहुत सहायता मिली थी। तब सोचा भी नहीं था कि आगे चल कर उनका प्रत्यक्ष स्नेह मिलेगा और कई कार्यक्रमों में उनके सान्निध्य में बोलने का भी सौभाग्य मिलेगा। जब उनको ‘हरियाणा भाषा विभाग’ के एक कार्यक्रम में सुना तो उनकी वक्तृता-कला से दंग रह गया था। बाद में जब भी दिल्ली वि.वि. के एक कॉलेज में अध्यापन करने लगा तो उनके वैदूष्य से परिचित होने, उन्हें सुनने और उनसे सीखने के अवसर मिलने लगे। अपनी पुस्तक ‘काव्यास्वाद और साधारणीकरण’ लिखते समय उनके विशिष्ट ग्रंथ ‘रस सिद्धांत और सौन्दर्यशास्त्र’ से सहायता तो मिली ही, उनका मार्गदर्शन भी मिला।

Advertisement

प्रो. निर्मला जैन का जन्म 28 अक्तूबर, 1932 को दिल्ली में हुआ। यदि कत्थक गुरु अच्छन महाराज से कई वर्षों तक नृत्य की शिक्षा प्राप्त करना उनके कला-प्रेम का एक विस्मृत अध्याय है तो प्रखर वक्ता, निष्ठावान अध्यापक और तटस्थ आलोचक उनके जीवन के सर्वज्ञात संदर्भ है। डॉ. जैन का आलोचना-संसार व्यापक विस्तृत और गंभीर है। सैद्धांतिक आलोचना के साथ ही व्यावहारिक आलोचना में भी उनका विपुल योगदान है। ‘रस सिद्धांत और सौन्दर्यशास्त्र’ में उन्होंने भारतीय और पाश्चात्य काव्य-सिद्धांतों का मार्मिक उद्घाटन किया है। यह उनकी श्रेष्ठ कृति है। जब उन्होंने लेखन आरंभ किया तो आलोचना में पुरुषों का ही दबदबा था लेकिन ‘हिन्दी आलोचना की बीसवीं सदी’, ‘आधुनिक साहित्य : मूल्य और मूल्यांकन’, ‘पाश्चात्य साहित्य-चिन्तन’, ‘कविता का प्रति-संसार’, ‘कथासमय में तीन हमसफर’, ‘कथा-प्रसंग यथा-प्रसंग’, ‘डॉ. नगेन्द्र’, ‘काव्य-चिन्तन की पश्चिमी परंपरा’, ‘हिन्दी आलोचना का दूसरा पाठ’, ‘प्रेमचंद : भारतीय साहित्य-संदर्भ’, ‘आधुनिक हिन्दी समीक्षा’ जैसी उनकी कृतियों ने हिंदी आलोचना का एक इतिहास निर्मित किया।

उनका अनुवाद-कर्म और संपादन-कर्म भी महत्त्वपूर्ण है। अनूदित साहित्य का विषय-वैविध्य उनकी बौद्धिक प्रखरता का प्रमाण है। एक ओर उन्होंने ‘उदात्त के विषय में’, ‘बंगला साहित्य का इतिहास’, ‘समाजवादी साहित्य : विकास की समस्याएं’, का अनुवाद किया, दूसरी ओर ‘एडविना और नेहरू’, ‘सच, प्यार और थोड़ी-सी शरारत (खुशवंत सिंह की आत्मकथा)’, ‘भारत की खोज’ जैसी भिन्न-संदर्भी कृतियों का अनुवाद किया।

दिल्ली से उनका गहरा लगाव था। उन्होंने यहां के व्यापक अनुभवों का आत्मीय चित्रण ‘दिल्ली : शहर दर शहर’ में किया है। जीवन-संदर्भों को बेबाकी से प्रस्तुत करने वाली उनकी आत्मकथा ‘जमाने में हम’ उनके अपने संघर्ष की कथा तो है ही, समकालीन हिंदी साहित्य-जगत और दिल्ली विश्वविद्यालय की कई अनजानी सच्चाइयों से भी रूबरू करवाती है। 20वीं सदी के महत्त्वपूर्ण लेखन का उन्होंने संपादन भी किया, जिनमें महादेवी वर्मा का संपूर्ण साहित्य (चार खंड) ‘जैनेन्द्र रचनावली (12 खंड)’, ‘रामचंद्र शुक्ल : प्रतिनिधि संकलन’, निबंधों की दुनिया, अंतस्तल का पूरा विप्लव : अंधेरे में, इतिहास और आलोचना के वस्तुवादी सरोकार तथा ‘नई समीक्षा के प्रतिमान’ प्रमुख हैं।

प्रो. निर्मला जैन स्वाभिमान के प्रति सजग और समझौतावाद से दूर रहीं। विरोधों और संघर्षों के बीच उन्हें व्यापक स्वीकृति और सम्मान भी मिले। जिनमें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, साहित्य भूषण सम्मान, डालमिया पुरस्कार, तुलसी पुरस्कार, रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार, विशिष्ट साहित्यकार सम्मान (हिंदी अकादेमी, दिल्ली), सुब्रह्मण्यम भारती (केंद्रीय हिंदी संस्थान) उल्लेखनीय हैं। उनकी व्यावहारिक आलोचना उनकी तटस्थता का उदाहरण है जबकि उनकी प्रतिबद्धता प्रगतिशील चेतना के साथ थी। उत्तरशती में स्त्री-विमर्श और दलित विमर्श की प्रासंगिकता को स्वीकार करते हुए भी इसके ‘ब्रांड’ बन जाने और परिणामत: आत्म-संस्थापन का माध्यम बन जाने के कारण वे इनसे संतुष्ट नहीं थीं। वैचारिक समानताओं के आधार पर उनका एक व्यापक सक्रिय साहित्यिक परिवार था, जिसमें पूर्व पीढ़ी के डॉ. नगेंद्र और नामवर सिंह सहित राजेंद्र यादव, विश्वनाथ त्रिपाठी, केदारनाथ सिंह आदि समकालीन रचनाकार शामिल रहे। उनके अवसान के साथ हिंदी आलोचना का एक अध्याय समाप्त हो गया।

Advertisement
×