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अहसासों की महक

लघुकथा
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अशोक भाटिया

अभी-अभी पत्नी को बेटी का फोन आया है। मेरा ध्यान टूटता है...

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बेटी संग हम दोनों की फोटो सामने बेडरूम में लगी है। बेटी बिलकुल मां पर गई है। मैं फोटो को ध्यान से देखता हूं। मन से आशीर्वाद और न जाने क्या-क्या उदार विचार भावों के संग निकलते हैं। मैं बेटी के चेहरे पर ख़ुशी और उमंग देखता हूं और मन प्रसन्नता से भर जाता है। फिर पत्नी को देखता हूं, मेरी बेटी की मां, मेरी संगिनी।

अब बेटी अपने घर है, हम अपने घर अकेले। सामने दीवार-घड़ी में सेकिंड की सूई कोल्हू के बैल की तरह चक्कर काट रही है– एकदम मरियल। हमारा मन भी इसी तरह हो गया है। घर की हर चीज़ हमें घूरती हुई लगती है। उनकी तरफ से हम कन्नी काटकर निकल जाते हैं, पर कब तक और कहां! घर में सबसे ज्यादा आवाज़ सेकिंड की सूई के घिसटने की आती है। बेटी से फोन पर भला कितनी देर बात कर सकते हैं! उनके अपने रुझान हैं कामों के...

...अभी पत्नी को बेटी का फोन आया है। आज घर आ रही है। गोद में तीनेक महीने की बच्ची है। बच्ची होने के बाद पहली बार घर आ रही है। हम ख्यालों में खो गए हैं। कैसी दिखती होगी? हालांकि, व्हाट्सएप पर देखते रहे हैं, पर बच्चा तो दिन-दिन बदलाव लेता है।

पत्नी को मानो पंख लग गए हैं। मुझे सौदा-सुलुफ लाने की लिस्ट बनवा दी है। घर में हलचल है। बेड की शीटें, तकियों के गिलाफ बदले जा रहे हैं। मोमजामा बिछने लगा है। छुटकी के लिए एक छोटा-सा तकिया और कुछ खिलौने निकाल दिए गए हैं। रसोई से महक आने लगी है...

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