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सर्वजन हिताय की तार्किकता

ज्ञाानचंद शर्मा ‘बहुजन सुखाए सर्वजन हिताए’ डॉ. धर्मचन्द विद्यालंकार का दसवां निबंध संग्रह है। लेखक के अपने कथनानुसार उसके निबंधों में कोरी भावुकता एवं कलात्मकता नहीं है। इनमें वैचारिक विदग्धता और मौलिकता देखी जानी चाहिए। उसके अनुसार इनमें उसका इतिहास,...

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ज्ञाानचंद शर्मा

‘बहुजन सुखाए सर्वजन हिताए’ डॉ. धर्मचन्द विद्यालंकार का दसवां निबंध संग्रह है। लेखक के अपने कथनानुसार उसके निबंधों में कोरी भावुकता एवं कलात्मकता नहीं है। इनमें वैचारिक विदग्धता और मौलिकता देखी जानी चाहिए। उसके अनुसार इनमें उसका इतिहास, समाजशास्त्र और संस्कृति बोध रस भी झलकता है।

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आलोच्य पुस्तक अठारह लेखों का संकलन है। लेखक के मुताबिक,उसके लेखों में सामंतवाद, पूंजीवाद और पुरोहितवाद का विकट विरोध है, साथ ही पोंगापंथी मान्यताओं का खंडन है।

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इन लेखों में लेखक के मन की असहिष्णुता व दुराग्रह को स्पष्ट रूप से लक्षित किया जा सकता है। लेखों के ‘जड़-पूजा का विरोध और अवतारवाद का उन्मूलन’, ‘अतीत जीवी धर्मान्ध दिन में भी कहां देखते है’ जैसे शीर्षक इसका प्रमाण हैं। भारतीय सनातन धर्म-पद्धति, मान्यताओं, परंपराओं और व्यवस्था के प्रति उसका रवैया घोर खंडनात्मकता का है।

लेखक की उद्भावनाएं विचित्र हैं। उसके अनुसार वाल्मीकि रामायण की अयोध्या पाकिस्तान का पाकपत्तन अथवा अजोधन नामक नगर है; प्रकारांतर से सम्राट समुद्रगुप्त ही अयोध्यापति राम हैं; वहीं समुद्रगुप्त महाभारत के युधिष्ठिर बन जाते है; वैदिक आर्य अग्निपूजक थे इत्यादि।

लेखक का स्वकथन है कि उसके निबंधों में इतिहास, समाजशास्त्र और संस्कृति का गहन अध्ययन और अनुशीलन है। ज़रूरी नहीं है कि इस कथन से पूरी तरह से सहमत ही हुआ जाये परंतु इतना अवश्य है कि उसकी परिधि पर्याप्त विस्तृत है।

पुस्तक : बहुजन सुखाए सर्वजन हिताए लेखक : डॉ. धर्मचंद विद्यालंकार प्रकाशक : अनीता पब्लिशिंग हाउस, लोनी ग़ाज़ियाबाद पृष्ठ : 160 मूल्य : रु. 300.

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