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अपने देश में बेगाना होने की टीस

पुस्तक समीक्षा
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लेखिका सविता पाठक का ‘कौन सा देस उतरने का’ पहला उपन्यास है। मेट्रो के सफ़र से शुरू हुई यह कहानी अंततः किस ‘देस’ उतरी, यह समझना थोड़ा कठिन है। लेकिन इस उपन्यास में ज़िंदगी की कश्ामकश, शहरी व्यवस्था, ग्रामीणों का गांव से पलायन और शहरी चकाचौंध में गुम होती उनकी ज़िंदगी, मानवीय भावनाओं व अनुभवों की गहराई अत्यंत व्यापक रूप से उभरकर सामने आती है।

उपन्यास की कथा 25 भागों में विभाजित है। एक लड़के के मेट्रो के सफर से शुरू हुई यह कहानी सपनों की दुनिया में पहुंचती है और फिर असल ज़िंदगी के ताने-बाने में बदल जाती है।

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लेखिका स्पष्ट शब्दों में कहती हैं कि यह एक लड़के की कहानी है—मगर ‘मैं ही वह लड़का हूं’। इस कथन के साथ लेखिका निकल पड़ती हैं आधुनिक दुनिया में सामान्य जीवन जी रहे आम लोगों की ज़िंदगी के ताने-बाने को बुनने।

समझ से परे शीर्षक यह दर्शाता है कि गांव के लोगों की रोज़मर्रा की सीधी-सादी बोली शहर में किस तरह पराई हो जाती है। पढ़े-लिखे लोगों की नज़र में केवल उनकी भाषा ही नहीं, बल्कि उनका पूरा अस्तित्व ही विडंबना और अवहेलना का शिकार बन जाता है।

बदतर हालात के चलते शहर में बसने आए लोग धीरे-धीरे अपनी ही ज़िंदगी से, यहां तक कि स्वयं से भी अपरिचित होने लगते हैं। गांव की बंटती हुई खेती, ज़मीन-जायदाद, घर-द्वार से जुड़े झगड़े, रोज़ के दाने-पानी की समस्याएं और पुरानी सोच की जकड़न से छुटकारा पाकर सुकून भरी ज़िंदगी की खोज में जब लोग दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों की ओर आते हैं, तो वे वहां की बदहाली में कहीं गुम हो जाते हैं।

वहीं, कुछ लोग शहर की विसंगतियों से तंक आकर गांव की ओर लौटते हैं। लेकिन वहां भी उन्हें टूटे-फूटे खंडहर, बिखरते और मरते हुए रिश्ते, विशालकाय कंपनियों द्वारा निगली गई ज़मीन और बड़े-बड़े प्रोजेक्ट्स से उजड़ी हुई दुनिया मिलती है, जो उन्हें जड़ों से उखाड़ देती है।

लेखिका ने आसपास के इलाकों से आए देहाती लोगों की संस्कृति का अत्यंत नज़दीक से परिचय कराया है। उनकी परंपराएं, पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने वाली कहानियां, मुहावरे — यह सब लेखिका के स्थानीय लोगों से गहरे संबंधों का प्रमाण हैं।

पुस्तक : कौन से देस उतरने का लेखिका : सविता पाठक प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन पृष्ठ : 158 मूल्य : रु. 299.

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