अरुण आदित्य
पहाड़ झांकता है नदी में,
और उसे सिर के बल खड़ा कर देती है नदी।
लहरों की लय पर
हिलाती-डुलाती, नचाती-कंपकंपाती है उसे।
पानी में कांपते अपने अक्स को देखकर भी,
कितना शांत, निश्चल है पहाड़!
हम आंकते हैं पहाड़ की दृढ़ता,
और पहाड़ झांकता है अपने मन में—
अरे! मुझ अचल में इतनी हलचल?
सोचता है और मन ही मन बुदबुदाता है—
‘किसी नदी के मन में
झांकने की हिम्मत न करे कोई पहाड़।’
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