अरुण नैथानी
हरियाणा की मिट्टी में पले-बढ़े डॉ. राजेंद्र गौतम देश-विदेश के प्रवास के दौरान भी अपनी जड़ों से कटे नहीं। उनकी रचनाओं में गांव और किसानी चेतना के सरोकार शिद्दत के साथ उभरते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय-मॉरीशस में लंबे अध्यापन से इतर उनकी पहचान कवि-समीक्षक की रही है। नवगीतकार के रूप में गौतम ने काव्य, ललित गद्य और आलोचना विधा की दर्जन से अधिक स्तरीय पुस्तकें पाठकों को सौंपी हैं। समीक्ष्य कृति –‘कुछ दोहे इस दौर के’ में भले ही तीन दशक के मंथन के बाद उपजे दोहे संकलित हैं, लेकिन दोहे मौजूदा समय से संवाद करते हैं। राजधानी में रहने के बावजूद उनकी रचनाओं में ग्रामीण परिवेश की चिंताएं शिद्दत से उभरती हैं।
संकलन के दोहों से गुजरते हुए लगता है कि इनमें महज रचनाकार के ‘मन की बात’ नहीं, सही मायनो में ‘जन-मन की बात’ है। इनमें सात दशक के जीवन का देखा-भोगा हुआ ही नहीं, बल्कि समय की विसंगतियों पर गहरे तंज भी हैं। उसमें किसान,मजदूर व रिश्तों की फिक्र है। अतीत व वर्तमान से जुड़ी संवेदनाएं हैं। निस्संदेह, हिंदी साहित्य में दोहा छंद की प्रतिष्ठा रही है, सहज बोध से लोकप्रिय है, लेकिन इस गंभीर छंद का सृजन उतना ही कठिन है। लेकिन गौतम इसके जरिये समाज में व्याप्त विसंगतियों को सहज भाव से अभिव्यक्त कर देते हैं। एक बानगी :-
रंगमहल पर उतरती, तारों की बारात
खांस-खांस कर काटती, झोपड़ियां जब रात।
दरअसल, गांव-किसान रचनाकार की चिंताओं के केंद्र में है। राजनीतिक विद्रूपताओं के चलते किसान वोट बैंक तो बना, लेकिन सीमांत किसान की दशा नहीं सुधरी। उसकी पीड़ा दर्शाता एक दोहा :-
बैल बिके हल बिक गया, शेष अभी तक ब्याज
अब तो दूभर हो गये, सूखी रोटी, प्याज।
कोरोना संकट में मानवता ने एक बड़ी त्रासदी को भोगा। खासकर देश के कामगारों ने। महामारी से उपजे पलायन ने लाखों श्रमिकों को अपनी जड़ों की ओर लौटने को मजबूर किया। त्रासदी का एक चित्र डॉ. गौतम ने इस दोहे में उकेरा है :-
घिसें ऐड़ियां सड़क पर, रोटी को मजबूर
डिस्टेंसिंग के दौर में, सपने भागे दूर।
भौतिकवादी-महानगरीय संस्कृति में आत्मकेंद्रित पीढ़ी के दौर में मां-बाप किस मानसिक संताप से गुजरते हैं, उसका वर्णन कई दोहों में आता है। एकाकीपन की जीवन की टीस दिखाता एक दोहा :-
व्यर्थ सभी संचार हैं तार और बेतार
खटिया तक महदूद है अम्मा का संसार।
निस्संदेह, जब रचनाकार ने कुछ विशेष कहना चाहा, तभी दोहा रचा। लोक साहित्य पर ठोस काम करने के कारण लगता है रचनाकार की रग-रग में हरियाणवी की महक है। संकलन में कुछ हरियाणवी दोहे भी संकलित हैं। जिसमें हरियाणवी लोकजीवन की मिठास मौजूद है। इन दोहों में उभरते लोकबिम्बों में किसान की फिक्र है, पर्यावरण की चिंता है, मजदूर की सुध है और लोकजीवन की दुश्वारियों का मनन है। कह सकते हैं इस दौर के दोहों में समय की आहटें हैं और समय से संवाद है।