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काका हाथरसी की विरासत

‘संगीत’ की नब्बे वर्षों की धरोहर

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राजेन्द्र शर्मा

कवि सम्मेलनों के रसिकों के लिए काका हाथरसी की पहचान नाटकीय दाढ़ी के बीच से एक सुंदर मुस्कान के साथ पंच लाइनें सुनाने वाले हास्य कवि के रूप में है। बहुतों को यह जानकारी नहीं होगी कि काका हाथरसी, जिनका वास्तविक नाम प्रभुलाल गर्ग था, ने भारतीय शास्त्रीय संगीत को जन-सामान्य तक पहुंचाने के लिए साल 1935 में हाथरस से ‘संगीत’ नामक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ‍ किया था। सुखद है कि नब्बेे साल बीत जाने के बाद भी ‘संगीत’ का प्रकाशन जारी है।

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साल 1935 में संगीत पर केन्द्रित पत्रिका का प्रकाशन करना लोहे के चने चबाने जैसा दुरूह कार्य था। संपादक से लेकर चपरासी तक के सारे काम प्रभुलाल गर्ग ही करते। संगीत पत्रिका के रजत जयंती अंक में काका हाथरसी ने लिखा कि ‘ब्रज की पावन भू‍मि पर जन्म लेने के कारण हमारे शरीर में कुछ संगीत संस्कार थे, जिनका उदय संगीत मासिक पत्र के रूप में सन‍् 1935 के एक दिवस को हुआ। संगीत कार्यालय में उन दिनों एक छोटी-सी मेज, एक तिपाई, मित्र का एक पुराना ग्रामोफोन और तीन रिकार्ड थे। घर की नकद पूंजी में अस्सी रुपये से अधिक नहीं थे। एक ही समय प्रेम से भोजन बनता था, शाम को या तो हम बांसुरी बजाया करते अथवा किसी दिन सुबह की बची हुई सूखी रोटी खा लिया करते। चित्रकारी का शौक बचपन से था तो पत्रिका के टाइटल खुद बनाया करते। चिटि्ठयों के जवाब देना, संगीत का संपादन करना, उसके प्रूफ देखना और पत्रिका छपने पर उसे पैक करके टिकिट लगाकर उसे डाकखाने तक पहुंचाने के तमाम कार्य इस अकेले शरीर से करते।’

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उस समय इस पत्रिका का वार्षिक शुल्क था मात्र दो रुपये। पत्रिका के लिए विज्ञापन के लिए पत्रिका में ही बेहद रोचक अदांज में विज्ञापन छपता—‘राजा, महाराजा, रईस, हकीम और हुकुम, सभी हमें पढ़ते हैं... हम बर्मा, सीलोन, अफ्रीका, फिजी और स्याम में बेचते हैं... हमारे साथ, आपका विज्ञापन दूर तक जाएगा। प्रति पृष्ठ दर 15 रुपये, आधा पृष्ठ 8 रुपये, एक-चौथाई पृष्ठ 4 रुपये!’

बीते नब्बे सालों में समय की धार के साथ सब कुछ बदल गया है गर कुछ नहीं बदला तो वह है संगीत पत्रिका का कार्यालय और संगीत पत्रिका का मिजाज। मथुरा से लगभग 45 किलोमीटर दूर एक शहर है हाथरस। कभी हाथरस पूरे उत्तर में अपनी बेहद संगीतमय नौटंकी के लिए मशहूर था। शहर के मुरसान गेट के पास एक गली गंगाधर है, जिसे लोग काका गली के नाम से पुकारते हैं। इसी गली में वर्ष 1935 में संगीत कार्यालय की स्थापना हुई थी। संगीत कार्यालय की पीली पड़ चुकी इमारत में संगीत की पुरानी और नई किताबों की महक है और दीवारों पर हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के पुराने उस्तादों की पेंटिंग्स लगी हुई हैं और प्रवेश द्वार पर ‘संगीत कार्यालय’ का बोर्ड लगा है।

नब्बे साल पहले की सामाजिक संरचना में महिलाओं के संगीत सीखने व प्रदर्शन करने को अच्छा नहीं माना जाता था। संगीत पत्रिका ने इस काम को एक आंदोलन की तरह अपने अंकों में अंजाम देने का बीड़ा उस समय उठाया। पत्रिका में महिलाओं के पेशेवर संगीतकार बनने के अधिकार का बचाव किया जाता। सिद्धेश्वरी बाई, बड़ी मोती बाई, रसूलन बाई, जद्दन बाई, गौहर जान, गिरिजा देवी जैसी कई अन्य गायिकाओं पर जो शोधपरक सामग्री संगीत पत्रिका में प्रकाशित हुई है, वैसे प्रमाणित और तथ्यपरक जानकारियां कही नहीं मिलती हैं।

संगीत पत्रिका के एक से एक बेहतरीन विशेषांक भारतीय संगीत के विभिन्न विषयों में प्रकाशित हुए। इन विशेषांकों में भातखंडे अंक, ध्रुपद अंक, ताल अंक, नृत्य अंक, सितार अंक, ग्रामोफोन अंक, ठुमरी अंक, राग रंग अंक, घराना अंक, अप्रचलित राग-ताल अंक, संत संगीत अंक, आधुनिक संगीत अंक, कर्नाटक संगीत अंक, ग़ज़ल अंक, अलाउद्दीन खां स्मृति अंक, मृदंग अंक, भिंडी बाजार घराना अंक, मोहम्मद रफी अंक, सुरैया संगीत, ‘गणिका संगीत’ अंक आदि ऐसे एक सौ से अधिक अनेक विशेषांक प्रकाशित हुए हैं।

साल 1935 से 1955 तक संगीत पत्रिका का संपादन काका हाथरसी ने किया। वर्ष 1955 से 2021 में संगीत पत्रिका का संपादक काका हाथरसी के एक मात्र पुत्र लक्ष्मी नारायण गर्ग ने किया। लक्ष्मीनारायण पर संगीत का ऐसा प्रभाव बचपन में ही पड़ा कि वह संगीत को समर्पित हो गये। लक्ष्मी नारायण ने हाथरस के श्रेष्ठ तबला-वादक पंडित लोकमान और पंडित हरिप्रसाद से तबला-वादन सीखने के साथ-साथ जयपुर के पंडित शशिमोहन भट्ट और पंडित रविशंकर से सितार-वादन सीखा। लेकिन पिता की विरासत को संवारने के क्रम में उन्होंने अपनी कला का प्रदर्शन त्यागकर साल 1955 से अपनी आखिरी सांस (तीस मई, 2021) तक कुल 66 वर्षों तक संगीत पत्रिका का संपादन किया गया। उनके देह त्याग के उपरांत पचास सालों से संगीत पत्रिका की संपादकीय टीम में रहे संगीताचार्य डाॅ. राजेन्द्र कृष्ण अग्रवाल इस पत्रिका का संपादन कर रहे हैं।

आज के डिजिटल युग का प्रतिकूल असर संगीत पत्रिका पर भी पड़ा है। हाथरस से प्रकाशित ‘संगीत’ पत्रिका गूढ़ दुनिया का एक मजेदार इतिहास रही है। संगीत जैसी पत्रिकाएं— मिलनसार, जानकारीपूर्ण और विषय-वस्तु का मिश्रण- कभी घरों में इंतज़ार किया जाता था। इसका वार्षिक अंक 100 से ज़्यादा पृष्ठों का एक खजाना होता था। संगीत कार्यालय के प्रबंधक शरण गोपाल बताते हैं कि उन्हें वह समय याद है, जब संगीत पत्रिका की 3,000 से अधिक प्रतियां भारत के बाहर बिक जाती थीं। इसके बावजूद प्रभुदयाल के पौत्र और पचपन बरस तक संगीत के संपादक रहे लक्ष्मी नारायण गर्ग के पुत्र अशोक गर्ग जो सैनडिएगो में रहते है, बाबा और पिता द्वारा नब्बे साल से रोपे गये बिरवे को बनाये रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं।

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