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पहाड़ी जनजीवन की टीस

पुस्तक समीक्षा
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रतन चंद ‘रत्नेश’

उत्तराखंड हो या हिमाचल प्रदेश, यहां के पहाड़ों और पहाड़ियों की कथा-व्यथा एक-सी है। लोककथाओं से उभरे लच्छू कोठारी जैसे पात्र और उसके सींगों वाले नौ बेटों की महामूर्खता के कारण विकास के नाम पर पर्वतीय क्षेत्रों से की जा रही छेड़छाड़ से उपजी विनाश-कथा सतत लिखी जा रही है।

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भूस्खलन के कारण शिमला का प्राचीन शिव मंदिर पूरी तरह ध्वस्त हो गया हो या फिर उत्तराखंड में जोशीमठ और यमकेश्वर के बाद गांव के गांव धंस रहे हों—सबके पीछे तथाकथित विकास की आड़ में हो रहा अंधाधुंध अतिक्रमण ही जिम्मेदार है। इसके साथ ही, गांवों को अलविदा कहकर शहरों में बस जाने के कारण लोग अपनी पुश्तैनी जमीन और जड़ों से विमुख होते जा रहे हैं—यह एक और गहरी त्रासदी है।

नवीन जोशी का सद्यः प्रकाशित उपन्यास ‘भूतगांव’ उत्तराखंड के ताजा इतिहास की पृष्ठभूमि में आधुनिक विकास की विसंगतियों और पहाड़ों के उजड़ते गांवों की इसी कथा पर आधारित है। सतौर नामक एक गांव में सिर्फ एक रिटायर्ड फौजी आनंद सिंह बचा है, जो अकेला वहां रहकर अपने कुत्ते शेरू को गांव के उजड़ने की कथा सिलसिलेवार सुनाता रहता है। इस कथ्यार में पहाड़ी जनजीवन की यादों का एक रोचक पिटारा खुलता चला जाता है। दूसरी ओर, कभी एक अछूत लड़की के साथ यहीं से शहर भागा हुआ वीरेंद्र सिंह की कथा समानांतर चलती है। वह एक निःसंतान दंपति के साये में लगातार संपन्नता के शिखर छूता है, और अपने एक पुत्र व पुत्री को अच्छी शिक्षा-दीक्षा देकर विदेश भेज देता है। अंततः अकेला रहकर अस्पताल में दम तोड़ देता है।

इस प्रकार, शहरी चकाचौंध की दलदल में फंसे आधुनिक होते पहाड़ के लोगों की अंतर्कथा परत-दर-परत खुलती चली जाती है।

पुस्तक : भूतगांव (उपन्यास) लेखक : नवीन जोशी प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 191 मूल्य : रु. 299.

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