राजकिशन नैन
गोकुलराम शर्मा ने ‘वीर हसन खां मेवाती’ नामक अपने प्रथम खंड काव्य में शताब्दियों पहले की धूल में अंटी निर्भीक योद्धा हसन की गेय गाथाओं, विदेशी हमलावरों की घिनौनी आकांक्षाओं, आपसी कलह एवं फूट सरीखी मानवीय दुर्बलताओं और रक्तरंजित तलवारों की खनखनाहट के बीच उभरती दरकती जिन लोमहर्षक घटनाओं को रेखांकित करने का सद्प्रयास किया है, वे अब सिर्फ किस्से-कहानियों तक सीमित हैं।
हसन खां मेवाती की चारित्रिक खूबियों और उसके त्याग तथा बलिदान को कवि ने बेहद सशक्त ढंग से उभारा है। इस सुभट योद्धा ने खानवा के युद्ध में लड़ते हुए देश की रक्षार्थ अपने प्राण वार दिये किंतु आक्रांताओं से हाथ नहीं मिलाया। हसन खां कहा करता था कि—उत्कंठा है केवल इतनी मेवात का ऊंचा नाम करूं/ खोज मिटाऊंगा शत्रु का बेशक युद्ध में जूझ मरूं।’
हसन खां मेवाती और राणा सांगा के अवदान का यश गाते हुए कथानक के हिंसक, बर्बर एवं निदंनीय पहलुओं का सशक्त प्रतिकार कवि ने जिस एकाग्र भाव से किया है वह इस खंड काव्य की रीढ़ है। राणा सांगा के साथ हसन खां जैसे दो-चार और नर-नाहर होते तो बाबर, भारत में मुगल वंश की नींव कदापि न डाल पाता। हसन खां ने बाबर को यह कहकर युद्ध की खुली चुनौती दी थी कि—‘मैं ठान ठानता हूं बाबर/ आजाद वतन करवाने की/ चमड़ी तेरे तन से उतार/ जौ का भूसा भरवाने की।’ खानवा के रणांगण में हसन खां ने जिस फुरती के साथ तलवार चलाई थी उसका कवि ने समयोचित चित्रण किया है—ले हसन हरावल चढ़ दौड़ा/ कांपी थी बाबर की छाती/ गाजर मूली ज्यूं कटे मुगल/ लपकी जिधर असि मेवाती।’ बाबर की सेना के पांव उखड़ गए। समूचे रणक्षेत्र में सांगा और हसन का खौफ पसर गया। कवि ने उस मंजर का सटीक चित्रण किया है—‘मीलों फैले रणक्षेत्र में/ मृत्यु ने पांव धरे जैसे/ जाने कब सांगा और हसन/ आ मारें, मुगल डरे ऐसे।’ कवि ने कविता का ककहरा राष्ट्रीय ख्याति के वरिष्ठ कवि एवं अग्रणी साहित्यकार बलबीर सिंह ‘करुण’ (अलवर) से सीखा है। खंड काव्य का एक उजला पक्ष स्वयं कवि के शब्दों में व्यक्त यह स्वीकारोक्ति है कि ‘मेरा पहला खंडकाव्य उस शानदार शख़्सियत को आलोकित करेगा जो पंद्रहवीं सदी में जन्मा और जिसके विचारों और कार्यों की आज महती अपेक्षा है।
हसन ख़ां की गाथा को छंदबद्ध करने से पहले मैंने राजा हसन खां मेवाती के दरबारी कवि नरसिंह देव (ग्राम कझौता) द्वारा रचित दोहों को ध्यान से पढ़ा, जिसका प्रभाव इस कृति के सृजन पर पड़ा।’ खंड काव्य को परिमार्जित करने के लिए कवि ने तय शास्त्रीय मानकों में थोड़ी ढील दी है। यह सामान्य-सा बदलाव स्वाभाविक है, जो निश्चय ही स्वागतयोग्य है। खंड काव्य को कवि ने नवोदय, मेवनी, प्रस्थान और रण नामक चार सर्गों में बांटा है तथा उन्हें उपसर्गों में विभक्त करके उन्हें पाती, पड़ाव, खानवा एवं अभय-समय आदि नाम दिए हैं। तमाम सर्गों में हमारी देशज अस्मिता एवं हमारी सांस्कृतिक-पारंपरिक थाती का यथोचित चित्रण हुआ है।
पुस्तक : वीर हसन खां मेवाती लेखक : गोकुल राम शर्मा ‘दिवाकर’ प्रकाशक : साहित्यागार, जयपुर पृष्ठ : 143 मूल्य : रु. 225.