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सिरजनहार

लघुकथा
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अशोक भाटिया

करीब चार महीने का बच्चा भीतर हलचल करने लगा है। मानू को ख़ुशी और जिज्ञासा के पंख लग गए हैं। इस बार अल्ट्रासाउंड में वह सब साफ़-साफ़ देख सकेगी।

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वह घड़ी भी आ गई। मानू ने स्क्रीन पर बच्चे को हिलते-डुलते देखा,उसके दिल की धड़कन को सुना, जीती-जागती एक जिंदगी उसके भीतर पल रही है। दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य, सबसे खूबसूरत नज़ारा, सबसे सुंदर फूल...

टेस्ट के बाद पूछने पर विशेषज्ञ ने बताया, बाकी सब नॉर्मल है, पर बच्चे के नाक की हड्डी अभी नहीं दिख रही, जो इस स्टेज तक दिख जाती है।

मानू के स्वर्ग को ठेस लगी। पूछने पर बताया गया कि कई बार कुछ हफ्ते बाद दिखती है। सुनकर मानू कांप उठी। ‘कई बार’ यानी कभी नहीं भी दिखती। न दिखने का मतलब यह भी तो हो सकता है कि हड्डी बनी ही न हो। वह तेज़ी से डॉक्टर के कमरे में पहुंची। रिपोर्ट आगे रखी और भय की सिहरन के पार जाकर सीधे ही पूछ लिया, अगर हड्डी न बनी तो क्या बेबी को टर्मिनेट करना पड़ेगा?’

‘...देखते हैं। महीने बाद फिर चेक कराना है।’ कहकर डॉक्टर ने अगले पेशेंट को बुलाया।

मानू को लगा, जरूर कोई गड़बड़ है, जो उससे छिपाई जा रही है। उसकी गीली हो आई आंखों के आगे अंधेरा छा गया। कानों में अजीब-सा शोर बजने लगा।

वापसी पर गाड़ी में बैठते ही उसने मां और सास को फोन पर बताया, तो दोनों ने समझाया कि ऐसे हो जाता है। एकदम रिलैक्स करो। ऐसे कैसे कर सकती हूं रिलैक्स? आखिर क्यों नहीं आई नाक की हड्डी? कुछ बात तो जरूर है। डर के मारे उसकी आंखों के आगे रह-रहकर काले छल्ले-से उड़कर बिखरने लगे। उसे लगा, जैसे सामने कोई बड़े-बड़े डैनों वाला भयंकर पक्षी लाल आंखें और काली लम्बी चोंच खोले आसमान से उतरकर आ रहा है... वह शीशा तोड़कर मेरे बच्चे को ले जाएगा। ...डर के मारे मानू पसीने से भर गई। उसने जोर से आंखें बंद कर लीं। बंद आखों से ही आसपास देखना शुरू किया... पड़ोसन उसे कई दिन से बड़े ध्यान से देखती है। जरूर उसने ही नजर लगाई होगी। ...आंचल से ढको तो पता चल जाता है... न ढको तो वैसे ही पता चल जाता है ...मुंह बिचकाकर मानू बाहर देखने लगी.. अरे हां, रितु की भी तो एक रिपोर्ट ऐसी ही आई थी। फिर कुछ दिन बाद ठीक रिपोर्ट आ गई थी। ...मानू को कुछ उम्मीद जगी। उसने मोबाइल से गूगल सर्च किया। चेक करने के लिए एक बार फिर सर्च किया। दोनों बार अलग-अलग रिजल्ट आया। वह फिर परेशान हो गई। किसीके पास मेरे सवाल का साफ़ जवाब क्यों नहीं है? पूछूं तो किससे पूछूं? कहते हैं, दफ्तर में न बताओ, समाज में भी न बताओ, कहीं ऊंच-नीच हो गई तो? तो फिर क्या हो जाएगा? इसका मतलब अपने में अंदर-अंदर घुटते रहो? इतनी बड़ी बात क्यों किसी से नहीं कर सकते? बात करेंगे ही नहीं, तो असलियत कैसे पता चलेगी?

...तनाव के झूले पर लगातार झूलते-झूलते मानू सहसा भीतर से बाहर निकली। पति से बोली, ‘तीन दिन बाद अल्ट्रासाउंड कराने और डॉक्टर के लिए अप्वाइंटमेंट ले लेना।’

कहकर उसने पेट की तरफ देखा– ‘मैं अकेली सही, पर मेरे बच्चे, तू अकेला नहीं है। मैं हरदम तेरे साथ हूं, हमेशा।’ फिर उसने ममता के साथ पेट पर दोनों हाथ रख मानो बच्चे को अनिष्ट से बचा लिया और सामने दीवार पर लगी बच्चे की फोटो को निहारने लगी।

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