मनमोहन सहगल
‘शहर से दस किलोमीटर’ नीलेश रघुवंशी का नवयुग का उपन्यास है। जिसका नाम तथा विषयवस्तु नये दौर का पैगाम दे रहे हैं। पाठक को सोचने के लिए मजबूर कर रहा है कि शहर की सुविधाओं तथा गांवों की कठिनाइयों के बीच सन्तुलन बनाने की जरूरत है। एक लड़की, जिसे साइकिल चलाने का शौक है, गांव और नगर के बीच पुल बनाई गई है। गांव में खेत-खलिहान, गाय-भैंसें, उपजाऊ और उजाड़ धरती के साथ जूझते किसान और यहां से जुड़ी रिश्ते-नातेदारियां, ग्रामीण भारतीयता का विशाल फलक उपन्यास हमारे सामने रखता है। लेखिका का इस उपन्यास का प्रस्तुत करने का आधार कथा, घटना या वैचारिकता न होकर मूलक वातावरण है— एक ऐसा वातावरण जो शहर की सीमाओं से लगभग दस किलोमीटर बाहर चारों ओर फैला हुआ है। कदाचित नगर के अदारे, तथा स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ़ इण्डिया जैसे संस्थान भी हो सकते हैं, या कुछ शहर की महंगी धरती खरीदने में असमर्थ कम्पनी के मालिक नगर और गांव के बीच लटक कर अपना अस्तित्व बनाए रखना चाहते हैं।
लेखिका का भाषा पर पूरा अधिकार है, वातावरण को आत्मसात करने का सामर्थ्य है और भोपाल सरीखे नगर की ऊंची-नीची सड़कों का चक्कर लगाने या उन पर साइकिलिंग करने तथा मार्ग में आई मानव या पशु की सहज चाल नीलेश की आंखों में कैमरा चित्र बनकर उभरती है और उपन्यास घटना न रहकर दृश्य बन जाता है। मैं एक उदाहरण देने से नहीं चूक पा रहा हूं— ‘झुंड के बीचोबीच एक भेड़ खून से लथपथ निढाल-सी चल रही थी। उसके आसपास की भेड़ें जैसे उसे सांत्वना देती साथ चल रही थीं। उसकी चाल धीमी है। दूसरी भेड़ें जैसे उसे धकिया रही हैं। आंख ऊपर उठाई तो दंग रह गई देखकर कि गड़रिए के एक हाथ में खून से लथपथ, जन्म लिया हुआ नवजात है।’
शहर से बाहर दस किलोमीटर के घेरे में किसान, मजदूर, गांव के प्रिय बाबा तथा बिना किसी रिश्ते के नातेदारी में पारस्परिकता- अपने में एक शानदार उभरती सभ्यता का भावुक वर्णन उपन्यास में पकड़ बनता है। दस किलोमीटर बाहर की समूची आर्थिक, सामाजिक तथा नैतिक जीवन की तफसील लेखिका ने सफलतापूर्वक प्रस्तुत की है।
प्रस्तुत उपन्यास में लेखिका ने दिखाने का प्रयास किया है कि शहरी सभ्यता से स्वतंत्र हमारे गांव वह दुनिया है जो विकास की ओर बढ़ तो रही है, विकास का अर्थ भी समझने लगी है।
उपन्यास एक नया प्रयोग, नयी जद्दोजहद और नवीन तेवरों का संकलन है। नगर और गांव की मिलती सीमाओं को लेखिका ने धीरे-धीरे पारस्परिकता के एकीकरण में सम्मिलित किया है और युग में अलगाव रहते हुए भी एक-दूसरे की ओर बढ़ते हाथों को सजीवता से प्रस्तुत किया है। उपन्यास में विचार, परामर्श और संवाद तीनों सशक्त बने हैं।
पुस्तक : शहर से दस किलोमीटर लेखिका : नीलेश रघुवंशी प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 248 मूल्य : रु. 250.
जीवन के मर्म के शब्दचित्र
शक्ति वर्मा
सुकीर्ति भटनागर के संग्रह ‘बंद लिफाफा’ में छोटी-छोटी कविताएं हैं जो अधिकतम 10 पंक्तियों में हैं। कविताओं का प्रभाव देर तक पाठक के मन-मस्तिष्क पर विद्यमान रहता है। ये कविताएं सिर्फ मन का उद्गार नहीं हैं बल्कि ये समाजोत्थान के प्रति प्रेरित करती हैं। ये कविताएं समाज में फैली जड़ता, रूढ़िवादिता पर प्रहार करती हैं और असंतोष जताती हैं। संग्रह की कविताओं में जीवन की जिजीविषा है, उत्साह है, जीवन के प्रति उम्मीद है तो मनुष्य द्वारा जीवन के लिए लगातार जारी संघर्ष का व्याख्यान है।
रचनाकर्म के बारे में सुकीर्ति का मानना है कि ‘बहिर्मुखी व्यक्ति हो या अंतर्मुखी, शुरू के अवचेतन में अनेक घटनाएं, अनुभूतियां अनुभव, विचार प्रक्रिया से गुजरे बिना मस्तिष्क के किसी अंधेरे कोने में प्रसुप्त अवस्था में पहुंच जाते हैं… और फिर किसी घटना/परिघटना अथवा दुर्घटना से अकस्मात ही वह अनुभव के बंद लिफाफे की कारा तोड़ उज्ज्वल, समुज्ज्वल, स्वर्णोज्ज्वल रूप साकार हो उठता है।’ सुकीर्ति ने कोरोना विषय बनाया है और कविता लिखी है। ‘कोरोना’ शीर्षक कविता में वह इस बीमारी से फैले आतंक को दिखाती हैं :-
‘अंधेरी रात/ घिर गई युवती/ बीच दुष्टों के/ ‘कोरोना है मुझे’/ कहा उसने / सुनते ही शब्द ‘कोरोना’/ हो गए अलोप आततायी/ और चलती रही युवती/ बन स्वयंसिद्धा/ अंधेरी रात में।’
बहिष्कार कविता में कवयित्री कोरोना महामारी के दौर में लूट-खसोट मचाए हुए लोगों के बहिष्कार का आह्वान करती है। वह ऐसे लोगों को मृतक समान बताती है जो ईमान बेच रहे हैं। कविता है :-
‘कर दें बहिष्कृत/ कोढ़ लगी मानसिकता को/ मन से, समाज से/ संवेदनाशून्य मृतक समान/ जीवित रहते दूसरों के प्रति/ गौर में महामारी के/ बेचते हुए ईमान।’
‘पोस्टमार्टम’ कविता में सुकीर्ति रिश्तों का पोस्टमार्टम करती हैं, एक बूढ़ी हो चली मां के जरिये। मां जो कोख में रखने से लेकर बड़े होने तक बच्चे की खुशी के लिए अपने हर सुख को न्योछावर कर देती है, लेकिन जब वह बूढ़ी हो जाती है और सारा अधिकार बहू और बेटे के हाथों में चला जाता है तो उसकी क्या दुर्दशा होती है उसे कवयित्री इन शब्दों में व्यक्त करती हैं :-
‘सहते हुए/ अवहेलना, तिरस्कार, भूख और मार/ अपने ही/ बेटे-बहुओं द्वारा/ सोचती रही/ बूढ़ी लाचार मां/ लेने से पहले जल समाधि/ अच्छा होता/ कहलवाने से मां/ बांझ कहलाना।’
रिश्तों का एक उजला पक्ष भी है। ‘समय’ कविता में वह लिखती हैं :-
चलता था नन्हा बालक/ पकड़ हाथ पिता का/ जिन राहों पर/ रहा है चल/ निहारता/ पोस्टर यादों के/ चिपके स्थान-स्थान पर/ थामे हाथ वृद्ध पिता का/ वर्षों बाद।’
इन स्मृतियों को याद कर बेटा आह्लादित भी होता है।
पुस्तक : बंद लिफाफा कवयित्री : सुकीर्ति भटनागर प्रकाशक : अपोलो प्रकाशन, जयपुर पृष्ठ : 113 मूल्य : रु. 200.
पाठकीय चेतना पर दस्तक
अशोक भाटिया
कथाकार कमल कपूर साहित्य में सुपरिचित नाम है। अब तक इनके प्रकाशित 11 कहानी-संग्रह, 2 उपन्यास, 7 कविता-संग्रह इनकी दीर्घ साहित्य-साधना का प्रमाण हैं। ‘रोशनी के घाट’ इनका चौथा लघुकथा-संग्रह है, जिसमें 92 रचनाएं हैं। इनकी लघुकथाओं के केंद्र में परिवार के विविध आयाम रहते हैं, जहां बेहतर समाज के लिए संकेत या समाधान भी अपनी महती भूमिका निभाते हैं।
‘उनके दर्द’ लघुकथा, पुस्तक की श्रेष्ठ रचनाओं में से है। यह भारत-पाक विभाजन की त्रासदी को जीती दो स्त्रियों की दास्तान है। सांप्रदायिक भूमियों की ओर जाते आज के समय में ऐसी सार्थक रचनाएं कई सवाल खड़े करती हैं और कई सवालों का जवाब भी बनती हैं।
अतीत का अपराध-बोध वर्तमान में पाठकों के लिए दिशासूचक हो सकता है— ‘वह ठिठुरती रात’ लघुकथा यही बताती है। कामवाली, अपने पति की अति से तंग आकर, घर छोड़ देती है। पर कथावाचक उसे एक रात घर रखने को तैयार नहीं होती, तो वह आत्महत्या कर लेती है।
नज़र का भेद किस तरह गुणी के गुण न देख निंदा-रस में डूबा रहता है, इसे तंज़ के साथ ‘बरगद और बोनसाई’ में बखूबी उभारा गया है। ‘बिन फेरे’ लघुकथा जीवन-संध्या में जीने वाले स्त्री-पुरुष के इकट्ठा रहने के पक्ष में सतर्क और प्रगतिशील चेतना की रचना है।
‘कटघरे’ लघुकथा में मां बनी बेटी अपनी मां की सख्ती और उसके पीछे छिपे बेहतर लक्ष्यों का अब अपनी बेटी के सन्दर्भ में अहसास करती है। ‘रोशनी का घाट’ भी प्रगतिशील चेतना की रचना है। इनके अलावा संग्रह की ‘रिश्तों की अदालत’, ‘सारी कश्तियां जला आई थी वह’, ‘घर-आंगन की ठंडी छांव’, ‘अपना खुद का कमरा’ आदि बहुत सी लघुकथाएं पाठक के जेहन में स्थान बनाने में सक्षम हैं। सहज-सरल भाषा में लिखी कमल कपूर की लघुकथाएं पाठकीय चेतना के द्वार पर दस्तक की तरह सजती हैं।
पुस्तक : रोशनी के घाट लेखिका : कमल कपूर प्रकाशक : अयन प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 176 मूल्य : रु.440.
विसंगतियों का प्रभावी चित्रण
सुदर्शन गासो
राजेन्द्र निशेश हिन्दी साहित्य में एक सजग लेखक के रूप में जाने जाते हैं। आप ने अब तक व्यंग्य-संग्रह, काव्य-संग्रह, बाल-गीत-संग्रह व ग़ज़ल संग्रह के रूप में कुल पंद्रह पुस्तकें हिन्दी साहित्य को भेंट की हैं।
विचाराधीन काव्य संग्रह में कवि ने पूंजीवादी जीवन के सम-सामयिक ज्वलंत मुद्दों, परिस्थितियों, भावनाओं को प्रभावशाली ढंग से पेश किया है। लेखक आदमी के कुरूप चेहरे व मानसिकता का उल्लेख करते समय यथार्थ भाव से अपनी कलम का उपयोग करता है। लेखक आशावाद का पल्लू कभी नहीं छोड़ता। कवि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मानव विरोधी चेहरे को भी बेनकाब करने के साथ-साथ सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली शक्तियों को भी बेपर्द करता है। युद्ध के खिलाफ कवि कलम का इस्तेमाल करते हुए अपनी आवाज़ बुलंद करता है। कवि को समाज में से सांस्कृतिक विरासत, सौहार्द, आपसी प्रेम व स्नेह का समाप्त होना भी कचोटता है। वह लिखता है :-
‘विकास के अंधड़ में सभी कुछ उजड़ गया लगता है।’
कवि मर रही और मर चुकी नैतिकता पर भी चिंता प्रकट करता है। कवि समाज के बदचलन स्वरूप पर भी प्रहार करता है और साथ ही नई संस्कृति के विभिन्न रंगों को पेश करने से भी नहीं चूकता। कवि की उपमाएं नूतन व प्रभावकारी हैं। कवि की कविता का रंग देखने योग्य है :-
मैंने माटी को छुआ
अपने माथे पर लगाया
माटी खिलखिलाकर हंसी और बोली
आखिर तुमने मुझे
पहचान ही लिया।
पुस्तक : कभी ऐसा भी (काव्य- संग्रह) लेखक : राजेन्द्र निशेश प्रकाशक : समदर्शी प्रकाशन, मेरठ, उ.प्र. पृष्ठ : 112 मूल्य : रु. 150.
प्राणों के नियमन का सार
अरुण नैथानी
डॉ. वीणा अग्रवाल की हालिया प्रकाशित पुस्तक प्राणायाम के विभिन्न आयामों को अनुभव के साथ पाठकों से साझा करती है। ‘जीवन का सार प्राणायाम’ शीर्षक पुस्तक में हमारे प्राचीन ऋषियों द्वारा प्राणों के नियमन को लेकर व्यापक अनुभवों से अर्जित ज्ञान को आम लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया है। दरअसल, योग दर्शन में मान्यता रही है कि श्वास-प्रश्वास के नियंत्रण से हम मनोकायिक रोगों से मुक्ति पा सकते हैं। इसके मूल में उस प्राकृतिक मानवीय व्यवहार का निरूपण है जिसमें बिना औषधि के हम स्वस्थ रह सकते हैं।
समीक्ष्य पुस्तक में बताने का प्रयास हुआ है कि कैसे हमारे पूर्वजों ने जीवन के गूढ़ रहस्यों को प्राणायाम के जरिये साधने का प्रयास किया है। जो न केवल हमारे अंत:करण की शुद्धि में सहायक है बल्कि शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक उत्थान में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
पुस्तक में अष्टांग योग, प्राणायाम की व्याख्या, इसके प्रभाव, प्राणायाम करने में सावधानी, प्राणायाम के नियमों व सिद्धांतों, प्राणायाम व आहार-विहार, इसके लाभ, नाड़ी निरूपण, षट्कर्म, प्राणायाम के विभिन्न प्रकारों व लाभों के अलावा कुंडलिनी शक्ति व षड्चक्रों पर उसके प्रभाव का संक्षिप्त विवरण दिया गया है। दरअसल, आज की भागम-भाग कि जिंदगी में तमाम मनोकायिक रोगों में प्राणायाम अचूक औषधि है। कोरोना काल के दौरान इसने अपनी उपादेयता सिद्ध की है। अच्छी बात यह है कि देश में चिकित्सा की आधुनिक पद्धतियों के साथ इस प्राच्य जीवनी विद्या की स्वीकार्यता बढ़ी है जिसकी वैज्ञानिकता को लेकर एम्स व पीजीआईएमआर चंडीगढ़ में शोध प्रारंभ किये गये हैं। निस्संदेह, पुस्तक योग के जिज्ञासुओं के लिये उपयोगी है। प्रकाशित चित्र उपयोगी व मार्गदर्शक हैं।
पुस्तक : जीवन का सार प्राणायाम लेखिका : डॉ. वीणा अग्रवाल प्रकाशक : सप्तऋषि पब्लिकेशन, चंडीगढ़ पृष्ठ : 128 मूल्य : रु. 225.