अशोक गौतम
सभी साहित्यिक विधाओं का लक्ष्य समाज का परिष्कार करना है, इसमें कोई दो राय नहीं, किंतु साहित्यिक स्तर पर व्यंग्य को अछूत मानने वालों से अब अनुरोध है कि व्यंग्य अछूत नहीं, व्यंग्य विसंगतियों की अंतिम भाषा है। इस भाषा का उपयोग हर साहित्यिक भाषा में होता रहा है। अपने को उस भाषा से बचाते हुए भी।
व्यंग्य अपने समय की जिन विसंगतियों को जितनी शिद्दत से जनमानसीय भाषा देता है, उतनी साहित्य की शायद ही कोई अन्य विधा देती हो। आज व्यंग्य विसंगतियों पर मार करने वाला मुहावरा बन चुका है। अन्य साहित्यिक विधाओं की तरह उसे कल्पना की जरूरत नहीं। उसके पास समाज की विसंगतियों के कड़वे सच होते हैं। समाज के इन्हीं सचों के बीच से निकला है राकेश सोहम् का व्यंग्य संग्रह ‘टांग अड़ाने के मज़े’। यह सोलह आने सच है कि आज बात-बात पर टांग अड़ाना आम हो गया है। जिसे देखो, वही अपनी टांग हर कहीं अड़ाए रखता है।
राकेश सोहम् एक लंबे अंतराल से व्यंग्य लिख रहे हैं तो जाहिर है, उनके पास व्यंग्य की निज भाषा शैली होगी ही। दूसरों की भाषा शैली लेकर कम से कम व्यंग्य में बहुत दूर तक नहीं चला जा सकता। उनकी यही मौलिक शैली उनके इस संग्रह के व्यंग्यों में सहज ही देखी जा सकती है।
‘टांग अड़ाने के मज़े’ में व्यंग्यकार के छोटे-बड़े कलेवर के 49 व्यंग्य संकलित हैं। आम आदमी नहीं मिला, पर उपदेश कुशल बहुतेरे, आदमी के गले में घंटी, मैं सर्टिफाइड श्रोता हूं, ये मास्क और ये दूरी, कट पेस्ट में हमारी जिंदगी, दांत खाने वाले, दिखाने वाले, रावण है कि मरता ही नहीं, खजूर पर अटके, एक सरकारी व्यंग्यकार की विदाई, तिलचट्टे नहीं चाहिए, रोजमर्रा के जीवन की विसंगतियों से जुड़े व्यंग्य हैं जो विसंगतियों पर प्रहार करने की पूरी क्षमता रखते हैं, वैचारिक स्तर पर भी, भाषाई कौशल और शैलीगत स्तर पर भी।
पुस्तक : टांग अड़ाने के मज़े, व्यंग्यकार : राकेश सोहम् प्रकाशक : भावना प्रकाशन, दिल्ली पृष्ठ : 127 मूल्य : रु. 395.