अब मैं सहज हो चुका था और मैंने सामने मेज की तरफ देखा। मुझे आभास हुआ कि मैं स्वप्न की अवस्था में पहुंच चुका हूं। सामने की मेज पर मेरी तरफ जो लड़की बैठी थी उसे देखकर मुझे लगा कि 20-25 वर्ष के पुराने दिन फिर लौट आए हैं। हूबहू लता की शक्लो-सूरत की लड़की सामने बैठी दिखाई दी। मैं काफी देर तक उसे देखता रहा। वही आंखें, वही हंसने का अंदाज और चेहरे की बनावट। मैं उठा और उस लड़की के पास खड़ा हो गया। उसने मुझे प्रश्न भरी नजरों से देखा। मैंने झिझकते हुए पूछा ‘माफ करिएगा, आपका नाम क्या है बेटी?’ उसने नज़रें नीची करते हुए जवाब दिया ‘सुमन लता’।
आज बहुत दिनों के बाद मैं चावला रेस्तरां में आकर बैठा हूं। बहुत दिनों नहीं, बरसों बाद। अब, जब मैं सेवानिवृत्त हो चुका हूं, नौकरी की सारी जिम्मेदारी से मुक्त हो चुका हूं। अब विभाग में मेरी किसी को ज़रूरत नहीं रही। अब कोई फोन पर नहीं पूछता कि मैं कहां हूं? कब मिलूंगा? अब मैं पूरी तरह आज़ाद हूं। कहीं भी कितनी देर तक बैठ सकता हूं। किसी को अब मेरी फिक्र नहीं है। शाम अब रात में बदलने को आतुर हो रही है। इस रेस्तरां से मेरी बहुत सारी यादें जुड़ी हुई हैं। आज से 30 साल पहले यह रेस्तरां इस रूप में नहीं था। हां, कैश काउंटर की जगह तो नहीं बदली थी। लेकिन पूरा रेस्टोरेंट का नक्शा बदल दिया गया है। अब पुराने वेटर भी नहीं रहे थे। पहले एक छोटे कद का पंजाबी वेटर हुआ करता था, जो बहुत दौड़-भाग करता था। उस जमाने में पीछे एक फैमिली रूम था, जिसमें सिर्फ़ जोड़ों को जाने की ही अनुमति थी। उन दिनों मैं स्नातक कर चुका था और स्नातकोत्तर में प्रवेश ले रहा था। तभी मेरी दोस्ती लता से हुई। वह बहुत सुलझी हुई और समझदार लड़की थी। मैं अक्सर उसके साथ चावला रेस्टोरेंट के फैमिली हॉल में जाकर बैठता। उसने पहली मुलाकात में ही मुझसे पूछा था, ‘तुम कवि तो नहीं हो?’
‘क्यों?’ अकस्मात मेरे मुंह से निकला।
‘पता नहीं, क्यों मुझे कवि नामक जीव से चिढ़-सी है। ये लोग बेसिर पैर की कल्पनाओं में घिरे रहते हैं। चिपकू किस्म के जीव होते हैं।’ मैंने कहा, ‘कवि तो नहीं हूं, हां, कभी-कभार छोटी बड़ी कहानियां ज़रूर लिख लेता हूं।’
मेरे मना करने और उसके खुशी महसूस करने से मुझे लगा जैसे सारे जहान की खुशियां मेरे दामन में सिमट आई हों। हालांकि, मेरी एकाध कविता एक प्रतिष्ठित दैनिक के रविवारीय में छप चुकी थी, किन्तु मैं अपने को कवि नहीं मानता था।
‘मेरे ऊपर कहानी लिखोगे?’ उसने सपाट-सा सवाल किया। मैं असमंजस में पड़ गया। अगर हां कहता हूं तो कहीं यह नाराज न हो जाए और न कहता हूं तो बुरा न मान जाए। इसलिए मैंने इस दुविधा से निकलने के लिए बीच का रास्ता अपनाया। ‘मैं कोशिश करूंगा।’ मैंने कहा। वह खुश होकर बोली, ‘नहीं-नहीं ज़रूर लिखना, वैसे अभी तो कहानी शुरू हुई है न?’ उसने फिर प्रश्न किया और अब मैंने उसे जवाब न देकर उसे देखकर मुस्कुरा दिया और दिल ही दिल में कहा कि हर कहानी का अंत होता है, इसका भी एक दिन हो जाएगा।
उस समय वह बी.एड कर रही थी और उसका सेंटर दूसरे जनपद में पड़ा था इसलिए बाद में उससे मुलाकातें धीरे-धीरे कम होती चली गईं और मैं पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी पाने के संघर्ष में बहुत अंतर्मुखी हो गया। हालांकि, आवारगी का अपना एक अलग ही मज़ा होता है। जिंदगी का आईना आवारगी के दिनों में साफ नजर आता है। सतरंगी दुनिया के हर रंग आवारगी में बदरंग नज़र आते हैं। अपने आंखें चुराने लगते हैं और गैर सीने से लगाते हैं।
काफी संघर्ष करने के बाद और एक-दो छोटी-मोटी प्राइवेट नौकरी के बाद मुझे वन विभाग में वनविद के पद पर नियुक्ति मिल गई और और मेरी तैनाती सुदूर जनपद में हो गई। मेरे जहन से लता की तस्वीर धुंधली पड़ गई थी। एक दिन जब मैं दो-तीन साल बाद अपने घर से अवकाश के बाद तैनाती पर जा रहा था तो जिस ट्रेन में मैं चढ़ रहा था, उस ट्रेन से लता मेरे ही अपार्टमेंट के दरवाजे से उतर रही थी। मेरे दिमाग की घंटियां बजने लगीं। वह भी तुरंत पहचान गई और खुश हो गई। मुझे वर्दी में देखकर उसका चेहरा खिल गया था। उसने बताया की बी.एड करने के बाद चंदौसी के कॉलेज में प्रवक्ता हो गई है और वहीं अकेले रहती है और वह यहां बरेली अपनी बहन के पास आई थी। मैंने उसे बताया कि मैं शाहजहांपुर जनपद में वहां के तराई जंगल में तैनात हूं और महीने में एक या दो बार घर पर मां-बाप से मिलने जा पाता हूं। शादी का जिक्र न उसने किया और न ही मैंने। मैं पढ़ाई के दिनों में अक्सर उदास हो जाता था। तब वह मुझे सकारात्मक बातों से मुझे सहारा देती थी और कहती थी, तुम निराश मत हो, एक दिन तुम जरूर सफल होगे। मैं उसकी बातों को हंस कर टाल देता। मगर वह मुझे निराशा के समंदर से निकालने का भरसक प्रयत्न करती। वह मुझे दुनिया जहान के उदाहरण सुनाती। लोग कितनी असफलता के बाद सफलता के शिखर पर पहुंचे। मुझे अच्छा लगता कि वह नकारात्मक विचार वाली लड़की नहीं है। मेरी तरह बहुत जल्द निराश नहीं होती।
उन दिनों पैसों की बहुत तंगी रहती थी। मगर लता हमेशा मुझे इस तंगी से दो-चार नहीं होने देती। फिल्में दिखाने अक्सर वही ज़िद करके ले जाती। एक दिन नॉवल्टी में हम दोनों दिलीप कुमार की ‘संघर्ष’ पिक्चर देखने गए थे। बालकनी काफी खाली थी। फिल्म शुरू होते ही पता नहीं लता को क्या हो गया? मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर बोली, ‘तुमने मुझसे पहले भी किसी से मोहब्बत की है?’ मेरी हथेली, जो उसके हाथ में जब तक थी, जड़वत् हो गई थी।
‘हां, की है। मगर वेजिटेरियन किस्म की।’
‘क्या, वेजिटेरियन लव? यह भी कोई मोहब्बत हुई?’ वह चौंकी-सी थी।
दरअसल, मैंने उससे करीब 10 मीटर की दूरी से बातें कीं। वो भी इशारों से। हमारे और उसके घर के बीच एक आम रास्ता था। इस पर गांव के लोग हमेशा गुजरते रहते थे। वह गली के उस पार दरवाजे पर या छत पर रहती और वहीं से बातें इशारों में करती।
‘फिर कभी पास भी आई?’ उसने सवाल दाग़ा।
‘हां, आई थी, जब उसकी शादी हो गई थी। एक दिन मैं गांव के एक मेडिकल स्टोर पर खड़ा था। वह अपने पति के साथ आई और जान-बूझकर मेरे करीब से गुजरी मुझे देखते हुए, मेरे जिस्म की गंध महसूस करते हुए।’ मैंने उसके सवाल का जवाब दिया।
‘फिर... फिर... वो उत्साहित-सी हो चली थी। उसी समय फिल्म के परदे पर वैजयंती माला का गाना शुरू हो गया ‘तस्वीर-ए-मोहब्बत थी जिसमें, हमने वो शीशा तोड़ दिया-तोड़ दिया’ और यही मेरा जवाब है, जो यह हीरोइन गा रही है।’ मैंने कहा।
सर्दियों के दिन थे वे। एक दिन मैं आरक्षित वन की जंगल कोठी पर कमरे में बनी बोन फॉयर (कमरे के एक तरफ चिमनी नुमा अंगीठी) के पास बैठा कैशबुक पर झुका हुआ कुछ लिख रहा था, तभी मैंने देखा कि कमरे में एक बैग लिए मेरा वॉचर राजाराम अंदर आया। मैंने पूछा ‘कौन आया है?’
वह बोला ‘साब, कोई मेम साब हैं।’
मैं उठ खड़ा हुआ। तभी सामने से लता को अंदर आते देखा। वह मुस्कुराते हुए बोली, ‘चौंक गए न? मुझे मालूम है तुम्हें उम्मीद भी नहीं होगी कि मैं यहां इतने बीहड़ जंगल में अकेली आ भी सकती हूं।’
मैंने बनावटी नाराज़गी दिखाई, बोला, ‘बेवकूफ हो तुम, अरे सूचना दे देती तो तुम्हें लेने जीप चली जाती और मैं खुद भी आ जाता तुम्हें लेने। तुमने क्यों परेशानी उठाई?’
‘अरे! इसमें परेशानी की क्या बात है। वैसे भी यह मेरी सरप्राइज ट्रिप है। कुछ दिन कॉलेज से छुट्टियां मिलीं हैं। और मैं यह देखना भी चाहती थी कि तुम इस घने जंगल में अकेले कैसे रहते हो?’
‘अकेला क्यों? अधीनस्थ कर्मचारी हैं, वाचर हैं। जो दिन-रात मेरे साथ रहते हैं।’
‘वो तो ठीक है, फिर भी...’
दरअसल, मेरी नौकरी कुछ ऐसी अस्थिर थी कि कोई लड़की वाला तैयार नहीं हुआ कि उसकी लड़की बीहड़ जंगल के बीच में रहे। दूसरे मेरे मां-बाप नहीं रहे। और मेरी व्यस्तता भी इतनी रही है कि मेरे पास विवाह के बारे में सोचने का वक्त नहीं रहा। मुझे आभास होता है कि मेरे अधीन मीलों लम्बा जंगल मेरे सीने पर उगा हुआ है, जिसकी मुझे दिन-रात चिंता रहती। मगर अपने अविवाहित रहने का उसने भी कोई कारण नहीं बताया।’
किंतु उस रात वह बहुत खुश रही। आधी रात तक हम कमरे में बनी बोन फॉयर के पास बैठे आग तापते हुए बातें करते रहे। कमरे में बनी बोनफॉयर उसने पहली बार देखी थी। वह देखकर चौंक गई। कमरे में इतनी बड़ी अंगीठी जिसका धुआं अंगीठी के ऊपर बने एक चौकोर पाइप के जरिए छत पर निकल रहा था। यह ब्रिटिश ज़माने की कोठी थी। पुरानी फिल्मों में कभी-कभी इस तरह की अंगीठी कमरे में दिखाई दे जाती हैं। अंग्रेजों ने अपने शासनकाल में जंगलों के बीचों-बीच इस तरह के गेस्ट हाउस और अधिकारियों की कोठियां बनाई थीं। आसपास कर्मचारियों के मकान भी बनाए गए थे जो जंगल में आवासीय कॉलोनी का आभास कराते थे।
उस रात वह बिल्कुल नहीं सोई। उसकी बातें जैसे आज ख़त्म ही नहीं होनी थीं। मुझे भी एक भावातिरेक का अहसास हुआ।
अगले दिन सवेरे करीब ग्यारह बजे जब मैं स्टाफ के साथ जंगल गश्त करके लौटा तो लता बेखबर सो रही। मैंने उसे उठाया और बताया कि आज स्टाफ ने जंगल में देसी पार्टी का इंतजाम किया है, तुम तैयार हो जाओ।
लता बोली, ‘मगर मुझे तो आज शाम को निकलना है, कल कॉलेज है मेरा।’
मैंने कहा शाम अभी दूर है, मैं शाम को तुम्हें ट्रेन तक छोड़ आऊंगा, चिंता की कोई बात नहीं।
लता घंटे भर में नहा-धोकर तैयार हो गई और मैं उसे लेकर जंगल के बीचोंबीच बह रही नहर के किनारे पर बने पुल पर ले गया।
स्टाफ सब तैयारी में लगा था। वॉचर प्रीतम सिंह ने उपलों का एक पिरामिड-सा बनाकर उसमें आग लगा दी थी और अब आग हल्की होने का इंतजार कर रहा था। आग के कम होते ही उसने आटे की लोई को हथेली पर रखकर बाटी बनाई और उसे साल के दो पत्तों के बीच रखकर उपलों के बीच में रख दी। इस तरह वह एक-एक करके बाटी रखता जा रहा था। लता गौर से उसके काम को देख रही थी। मैंने उससे कहा ‘यह जंगल का फास्ट फूड है, अभी यह बैगन में लहसुन खोंस कर उसको भी भूनेगा फिर उड़द की दाल अपने अंदाज से बनाएगा और लहसुन, धनिया की स्पेशल चटनी बनाकर परोसेगा, मगर उससे पहले बाटी को बीच में खोलकर उसमें देसी घी डालेगा।’
लता यह सब देखकर बहुत उत्साहित हो रही थी। उसने कहा ‘मगर पानी?’ मैंने कहा यहां पानी की जगह मट्ठा पिया जाता है। यहां ये करीब के एक सरदार के झाले से पहले ही एक केन में भरकर ले आए हैं।
दोपहर चोखा-बाटी खाकर लता काफी देर तक मेरे साथ नहर के किनारे-किनारे जंगल में घूमती रही। शाम को मैं उसे छोड़ने रेलवे स्टेशन तक गया। ट्रेन में उसके बैठने के बाद मैंने उससे पूछा ‘अब कब मिलोगी?’
वह हंसी, मगर उसकी आंखों में नमी-सी थी। उसने शायराना अंदाज़ में कहा, ‘अब तो जाते हैं मयकदे से मीर, फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया।’
उसके बाद लता की कोई खबर नहीं मिली। मैं भी बहुत व्यस्त हो गया था। वक्त मुट्ठी में रेत की तरह इतनी जल्दी निकल गया कि पता भी नहीं चला। और मैं सेवानिवृत्त हो गया।
अभी तक मैं पुरानी यादों में खोया हुआ ही था कि वेटर की आवाज ने मुझे वर्तमान में ला पटका।
‘साब और क्या लाऊं?’
मैंने अपनी मेज की तरफ देखा। चाय काफी देर की ठंडी पड़ चुकी थी और उसके ऊपर एक बारीक कत्थई-सी परत जम चुकी थी। मैंने वेटर की तरफ देखा।
‘एक चाय और वेज सैंडविच ले आओ।’ मेरा इतना कहते ही वेटर ठंडी चाय उठाकर चल दिया।
अब मैं सहज हो चुका था और मैंने सामने मेज की तरफ देखा। मुझे आभास हुआ कि मैं स्वप्न की अवस्था में पहुंच चुका हूं। सामने की मेज पर मेरी तरफ जो लड़की बैठी थी उसे देखकर मुझे लगा कि 20-25 वर्ष के पुराने दिन फिर लौट आए हैं। हूबहू लता की शक्लो-सूरत की लड़की सामने बैठी दिखाई दी। मैं काफी देर तक उसे देखता रहा। वही आंखें, वही हंसने का अंदाज और चेहरे की बनावट।
मैं उठा और उस लड़की के पास खड़ा हो गया। उसने मुझे प्रश्न भरी नजरों से देखा। मैंने झिझकते हुए पूछा ‘माफ करिएगा, आपका नाम क्या है बेटी?’
उसने नज़रें नीची करते हुए जवाब दिया ‘सुमन लता’।

