दस का नोट
नृत्य-घर में से छोटी बच्चियों के घुंघरुओं की छनकार और अलग-अलग कमरों से आती संगीतमयी धुनों से वातावरण रंगा पड़ा था। प्रिंसिपल साहब के कमरे में से मेरी सहपाठिनों की एक सुर में आलाप की आवाज़ आ रही थी। मैंने अभी ऊपर वाली सीढ़ी पर पैर रखा ही था कि पीछे से चपरासी ने आवाज़ लगाकर नीचे आंगन की तरफ इशारा किया। रिक्शेवाला हाथ मे नोट पकड़े अजीब-सी नज़रों से मेरी ओर देख रहा था। ‘गरीब हैं तो क्या, मेहनत की कमाई खाते हैं। हराम का माल हमें नहीं चाहिए।’ मैं नदी के उतराव में बह रही थी... नोट नीचे आंगन में डोल रहा था।
उन दिनों मैं संगीत सीख रही थी। दिनभर घर के कामकाज में फंसी, शाम के वक्त फुर्सत पाती तो आत्मा की तारें टुनक रही होतीं। लगता, कौन-सा वक्त हो कि मैं उड़कर संगीत की दुनिया में पहुंच जाऊं। अभी ही तो ज़िंदगी ने थोड़ी-सी फुर्सत दी थी, सांस लेने की। बच्चे कुछ अपने लायक हो गए थे और साईं भी मेहरबान था। घर की जिम्मेदारियों में से चार घंटे टिककर रियाज़ करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। यदि कभी सब काम निबटाकर रियाज़ के लिए बैठ भी जाती, तो कोई न कोई मिलने वाला ही आ धमकता... कभी जल रही दाल-सब्ज़ी की गंध ही मुझे संगीत के सागर में से बाहर उछाल देती।
सो, मैं अपना रियाज़ सुबह से ही स्टोव की आवाज़ में षड्ज का सुर मिलाकर शुरू करती। रसोई बनाते, कपड़े धोते, प्रेस करते, सीते-पिरोते, हर आवाज़ के साथ, हर ताल के साथ मिलकर मैं मनकों की भांति संगीत की माला में पिरोई हुई-सी इधर-उधर घूमती-फिरती। बेख़ुदी का ऐसा आलम था कि कॉलेज जाते हुए रिक्शे में या बस में लगातार मेरी चेतना की पतंग सुर की डोर में बंधी खुले आसमानों में उड़ती रहती और मुझे पता ही न चलता, किस वक्त घर से कॉलेज पहुंच जाती और वहां से कब वापस घर भी लौट आती।
चार बजे मेरी क्लास शुरू होती थी और घर से इतनी दूर जाने के लिए रिक्शा में बहुत देर लगती। कभी-कभार सिटी बस मिल जाती, वह भी आधा घंटा लगा देती, पर उसका भरोसा भी तो नहीं होता था। कई बार इंतज़ार करते-करते कॉलेज में बहुत देर से पहुंचती और पाठ मिस हो जाता, जो मुझे बहुत अखरता।
उस दिन घर से निकलने में कुछ विलंब हो गया था। पहले दिन ही नया राग ‘मधुवंती’ शुरू हुआ था। उसके आकार और स्वरूप के आलापों में मैं सुबह से ही डुबकियां लगा रही थी। राग के लोर में कुछ काम याद रखते हुए और कुछेक को बिसारते हुए जब मैं तेज़ कदमों से घर से निकलने लगी तो दिल में घबराहट-सी हो रही थी कि कॉलेज देर से पहुंचने पर कहीं राग के बेसिक सुर और उतार-चढ़ाव से वंचित ही न रह जाऊं।
अभी ‘भाइये की डेरी’ से भी पहले थी कि अचानक देखा, सड़क पर एक नोट मुड़ा-तुड़ा पड़ा था। मैंने उठाकर उसे सीधा किया। रंग-बिरंगा दस का नोट था। मैंने अपने आगे-पीछे देखा, कोई भी पास-दूर से देख नहीं रहा था। मैंने नोट को झट से पर्स में डाल लिया।
यद्यपि नोट उठाते हुए मुझे किसी ने देखा नहीं था, फिर भी पसीने की बूंदें मेरे माथे पर उभर आईं और लगा मानो अभी कोई पीछे से आवाज़ लगाकर कहेगा, ‘मेहरबानी करके नोट मुझे वापस कर दो। मैंने तो यूं ही मज़ाक में फेंका था।’ कभी लगता कि बहुत सारे बच्चों का एक ज़ोरदार ठहाका गूंजेगा और शर्मिंदगी में मुझे धरती भी राह नहीं देगी। मैंने अपने कदम और तेज़ कर लिए। बेचैनी की एक लहर ने मुझको सुरों के समंदर से बाहर उछाल दिया।
सामने ही एक रिक्शा खड़ा था। मैंने चलने के लिए पूछा। उस ज़माने में गुमटी से बड़े चौराहे तक अमूमन बारह आने दिया करती थी। किराया ज़रूर पहले ही तय कर लेती थी। इन रिक्शा वालों से भी बड़ा डर लगता है। टकेभर के आदमी मिनट भर में अच्छे-भले शरीफ़ आदमी की इज़्ज़त उतारकर रख देते हैं। ऐसी जगह पर जाकर ऊंचा-नीचा बोलेंगे कि सुनने वाले यही समझें कि सवारी ने ही ज़रूर बेइंसाफ़ी की होगी और ग़रीब का हक़ मारा होगा। यही सोचकर मैंने उससे पैसों के बारे में पूछा।
‘सवा रुपया लगेगा।’ उसने अजनबी-सी नज़रों से देखते और सीट पर कुछ संवरकर बैठते हुए जवाब दिया।
‘अरे भैया, रोज़ के आने-जाने वाले हैं। रोज़ साठ पैसे में जाते हैं।’
मैंने झूठ बोलते हुए उससे रियायत करने का वास्ता दिया, पर वह टस से मस न हुआ।
‘छाती के बल सवारी को ढोना पड़ता है। घाम के मारे हड्डियां पिघल रही हैं... कोई आपसे हराम के पैसे नहीं मांग रहे।’
वह तो और भी चौड़ा हो रहा था। उस वक्त आगे-पीछे दूसरा कोई रिक्शा भी तो दिखाई नहीं दे रहा था और वह शायद मेरी मजबूरी समझ गया था।
मैंने बमुश्किल उसको एक रुपये पर राज़ी किया। साढ़े तीन का समय तकरार में ही हो चला था।
रिक्शा में मैं बैठ तो गई, पर नोट ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। कभी लगता, किसी छोटे बच्चे को मां ने सौदा लाने के लिए दिया होगा। वह पतंगों के पेच देखता या किसी अन्य खेल में खोया नोट गिरा गया होगा और फिर सौदा लेकर पैसे देते समय नोट न पाकर वह कितना भयभीत हुआ होगा या रोने लगा होगा। शायद उसकी मां ने इस लापरवाही के लिए उसको पीटा भी हो। रोटी खाने को न दी हो। बच्चा बहुत मासूम और गरीब भी हो सकता था, सोचकर मेरा दिल बैठने लगा।
कभी लगता कि बहुत ज्यादा भागदौड़ में बीमार बच्चे का बाप धोती की सात तहों में लपेटा मुड़ा-तुड़ा यह नोट अनजाने ही सड़क पर गिरा गया होगा। डॉक्टर को पैसे देते समय उसके मुंह पर किस तरह का पीलापन छा गया होगा... उसकी ज़बान किस तरह थुथला गई होगी... उसकी आंखें कैसे फैल गई होंगी... उसका दिल किस तरह डूब गया होगा।
नोट उठाते समय तो सोचा था कि चलो, चार-पांच दिनों का रिक्शा-भाड़ा ही निकला, पर अब सोच रही थी कि कैसे इससे जान छुड़ाऊं। किसी ऐसे व्यक्ति को दे दूं जिसको सबसे अधिक इसकी ज़रूरत हो। वह इसे हराम का माल न समझे, बल्कि किसी अहम काम के लिए इस्तेमाल कर सके, शायद तभी मैं इस बोझ से मुक्त हो सकूं।
अपनी महरी की तरफ ध्यान गया। जमादारिन के बारे में सोचा। गरीबी की दलदल में धंसी पड़ी थीं, पर उन्हें इस तरह फ़िज़ूल के पैसे देकर मैं अपने एहसान का एक तगड़ा बोझ भी उनके सिर पर लादना नहीं चाहती थी और अपनी दरियादिली की नुमाइश भी नहीं करना चाहती थी। यह मेरी रूह को कुछ जंचा नहीं।
कभी मन हो कि सड़क पर फेंक दूं। भाड़ में जाए — कोई उठाए या न उठाए, पर फिर ख़याल आया, किसी ने उठाकर शराब ही पी छोड़ी, या फ़िज़ूल में ही फूंक दिया तो!
रिक्शा तेज़ी से भाग रहा था। गर्मी के दिनों में दोपहर के बाद सड़कें जो भड़ास छोड़ती हैं, वह पूरी तरह वातावरण को अपने में लपेट रही थी। रिक्शावाले के कानों के पीछे पसीना धार बनकर बहता, उसकी मैली फेंटों वाली कमीज़ को लगातार भिगो रहा था और कमीज़ पूरी तरह उसके बदन से चिपककर काली रंगत दे रही थी। गीली कमीज़ में से उसकी सारी पसलियां गिनी जा सकती थीं। निक्कर के पहुंचे आधे फटकर उसके घुटनों तक लटक गए थे। बूट की जगह उसने बोरी के टुकड़ों को तह करके रस्सी से पैरों पर लपेटकर बांध रखा था, ताकि टूटे हुए पैडल, जो कि धूप में गर्म हो गए थे, के सेक से पैरों को बचाया जा सके। पसीना उसकी टांगों, बांहों से लगातार बह रहा था, जिसकी कोई बूंद किसी वक्त सड़क पर भी चू जाती और प्यासी सड़क झट से उसे चाट जाती।
तीस-पैंतीस साल का होगा वह... मैंने अनुमान लगाया। शायद, चार-छह बच्चे भी होंगे ही... उसकी घरवाली उसके घर पहुंचते ही उसके हाथों और जेब की ओर देखती होगी कि कुछ दे तो वह आटा-दाल खरीदकर चूल्हा जलाए। शायद, इसके बच्चों के तन पर कपड़ा भी होता होगा या नहीं। उसका हांफता हुआ शरीर, फटे हुए कपड़े और इस तरह बहता पसीना देखकर लगा कि उससे अधिक इस नोट का कोई हकदार नहीं हो सकता।
कॉलेज पहुंचकर मैंने पर्स में से वही दस का नोट निकाला और साथ में एक रुपया और, दोनों को मिलाकर उसके हाथ में रख दिया। बग़ैर उसकी तरफ देखे मैंने तेज़ कदमों से फाटक पार किया और कुछ दूर अंदर जाकर पलटकर देखा तो वह हाथ में नोट पकड़े, मुंह खोले हक्का-बक्का सा होकर देख रहा था। मुझे अजीब-सा आनन्द और सुकून मिला।
नृत्य-घर में से छोटी बच्चियों के घुंघरुओं की छनकार और अलग-अलग कमरों से आती संगीतमयी धुनों से वातावरण रंगा पड़ा था। प्रिंसिपल साहब के कमरे में से मेरी सहपाठिनों की एक सुर में आलाप की आवाज़ आ रही थी। मैंने अभी ऊपर वाली सीढ़ी पर पैर रखा ही था कि पीछे से चपरासी ने आवाज़ लगाकर नीचे आंगन की तरफ इशारा किया।
रिक्शेवाला हाथ में नोट पकड़े अजीब-सी नज़रों से मेरी ओर देख रहा था।
‘गरीब हैं तो क्या, मेहनत की कमाई खाते हैं। हराम का माल हमें नहीं चाहिए।’
मैं नदी के उतराव में बह रही थी... नोट नीचे आंगन में डोल रहा था।
अनुवाद : सुभाष नीरव