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आत्महंता और रोशनी के पौधे

कविताएं
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(1)

दौर

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आत्महत्याओं का है,

और हो भी क्यों न—

जब सबने अर्थ और साधन को

बना ली है जीवन की धुरी।

तो अर्थव्यवस्था के तनिक रुकने,

साधनों के तनिक अभाव से आत्महत्या को

स्वाभाविक ही कहा जाना चाहिए।

(2)

पहली कविता के तर्क पर तो

दुनिया के तमाम

साधनहीन, सुविधाहीन लोगों को

हक़ ही नहीं है जीने का।

फिर भी वे जीते हैं, लड़ते हैं,

आत्महत्या नहीं करते—

तो उन्हें क्या कहा जाए!

(3)

इन दिनों किसान बो रहे हैं धान।

तमाम आशंकाओं के बीच

वे बोते हैं धान कि—

हो सकता है समय पर बारिश न हो,

बारिश हो और इतनी अधिक हो कि धान हो ही नही,

धान पके और घर पहुंचे—

यह भी सुनिश्चित नहीं होता

फिर भी वे बो रहे हैं धान,

क्योंकि धान का बोना केवल धान का बोना नहीं है,

बल्कि यह है एक जिम्मेदारी

किसी के हिस्से की भूख को मिटाने की।

जो समझते हैं जिम्मेदारी,

वे रोपने हैं अपने भीतर आशा का बीज,

लगाते हैं अपने आसपास रौशनी के पौधे—

वे नहीं करते आत्महत्या।

(4)

कई बार आत्महत्या,

आत्महत्या नहीं होती,

बल्कि हत्या होती है—

एक सुविचारित, सुनियोजित।

जिसकी पृष्ठभूमि,

जिसके कारणों और प्रयोजनों से रहकर

तटस्थ और अनिभिज्ञ

हम करते रहते हैं विमर्श घटना पर—

जैसे लाठी से पीटा जाता है पानी।

(5)

आत्महत्या और आत्महत्या में

होता है फर्क।

उसकी आत्महत्या होती है बड़ी—

जिसमें होती है सनसनी।

गृहणियों, किसानों, अभावग्रस्तों और

अकाल पीड़ितों की आत्महत्याओं पर

नहीं होती चर्चा—क्योंकि

इस चर्चा में अधिक है पीड़ा और जोखिम,

सत्ता को नहीं होता रुचिकर भी।

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