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फिर आया वसंत

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राजेंद्र कुमार कनोजिया

वसंत आयो,

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पीले रंग वस्त्र धार,

संगम से कर स्नान,

पीले से वस्त्र पहन,

फिर वसंत आयो।

इतराया मौसम है,

बलखाया यौवन है,

जोगी घर आयो,

फिर वसंत आयो।

शीत की ठिठुरन से,

पतझड़ की बिखरन से,

धूप हुई वासंती।

मन को हरसायो,

घिर वसंत आयो।

फूलों को रंग धानी,

अधरों से हर पानी,

ख़ुशी गीत गायो।

हे री, अब वसंत आयो,

घेरी सब वसंत आयो।

धरती पर हरियाली,

ख़ुश हैं डाली डाली,

आया है वनमाली,

मधुर गीत गायो।

जग वसंत आयो,

फिर वसंत आयो,

घिर वसंत आयो।

हिस्सा

तुम मेरे किस्से का हिस्सा,

मैं तो बस ये लिख रहा हूं।

तुम ही आईना मेरा हो,

मैं बस उसमें दिख रहा हूं।

जोड़ कर चेहरे कई चित्रों के,

टुकड़े फाड़ कर, सोचता हूं

हर नये चेहरे में आंखें गाड़ कर,

मैं स्वयं ही स्वयं को अब

खोजता हूं। शहर की हर

इक गली से कुछ है अपना,

भी ठिकाना, आना-जाना।

तुमसे भी है मेरा रिश्ता,

मैं तुम्हें बस जी रहा हूं।

तुम मेरे किस्से का हिस्सा,

दर्द भी हो और ग़म हो,

मैं तो सब कुछ पी रहा हूं।

तुम हो आईना मेरा,

मैं बस इसमें दिख रहा हूं।

आजकल अख़बार में,

हंसने की रुत आती नहीं।

ख़बर का दरबार है, फिर

भी है सन्नाटा बसा।

खबर के संसार में,

किस्तों में छपने लग गया हूं।

दिल की बातें छोड़ कर,

रिश्तों में बटने लग गया हूं।

क्या दुहाई दूं कि किसने,

क्यों लगा दी बोलियां, रोज ही

मैं घूमता हूं इश्क़ के बाज़ार में,

रोज ही बिन मोल के,

बाज़ार में बिकने लगा हूं।

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