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समाधान

लघु कथा
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अशोक जैन

हरी बाबू एकाएक खामोश हो गए। सुबह-सवेरे हनुमान चालीसा के पद गाते हुए अपनी दिनचर्या शुरू करने वाले रिटायर्ड शिक्षक चुप हो जाएं यह बात पूरे परिवार के लिए एक बड़ा आघात था।

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हुआ यूं कि कल शाम बेटे से किसी बात पर उनकी बहस हो गई तो बेटे ने कुछ भला बुरा कह दिया उन्हें। पूरे जीवन भर किसी की न सुनने वाले हरी बाबू बेटे की कैसे सुनते। बात बढ़ गई और बेटा बात को बीच में ही छोड़कर अपने कमरे में चला गया।

उसकी पत्नी बोली, ‘क्यों सुनते हो? हम उनकी पेंशन पर ही जीवित नहीं हैं।’

‘तुम समझती नहीं कुछ। महीनों से कुछ काम नहीं है और इधर निरंतर व्यापार में घाटा, फिर नये काम के लिए पैसे की जरूरत!! कहां से आयेगा पैसा?’

उधर हरी बाबू अपनी बढ़ती उम्र के साथ साथ पत्नी के बिगड़ते स्वास्थ्य को लेकर ज्यादा चिंतित थे। फिर भी अपनी दृढ़ शक्ति से एक कोचिंग सैंटर में शिक्षण और नियमित पेंशन से उनके हाथ मजबूत थे। पत्नी से पूछ ही बैठे-

‘तुम्हें क्या लगता है कि अब क्या किया जाए?’

‘जो हो रहा है, उसे चलने दो। ज्यादा खींचोगे तो टूट जायेगी।’ पत्नी ने विवशता बताई।

‘टूटने दो। अब बचा ही क्या है? जब तक पूरी जिम्मेदारी नहीं पड़ेगी, वह संभलेगा नहीं।’

‘...’

‘कब तक इन बूढ़ी हड्डियों से कमाकर खिलाता रहूंगा?’ हरी बाबू के स्वर में पीड़ा साफ झलक रही थी।

‘पहले और बाद में सब कुछ तो उसका ही है।’

‘तो क्या वक्त से पहले मर जाऊं?’

उनके चेहरे पर दृढ़ भाव देखकर उनकी पत्नी सहम गई।

‘बस और नहीं। बाहर बगीचे की जमीन पर दोनों ओर कुछ दुकानें बनवाकर किराए पर चढ़ा देते हैं। किरायानामा उसके नाम करवा देता हूं ताकि रसोई की दिक्कत न हो। बाकी वह जाने।’

हरी बाबू एक ठोस निर्णय ले चुके थे और उन्होंने अपने बैंक मैनेजर को मकान मोर्टगेज रखने के लिए फोन मिला लिया था।

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