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वक्त की कसौटी पर समाज

पुस्तक समीक्षा
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डॉ. ओमप्रकाश कादयान

वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. धर्मचन्द्र विद्यालंकार की विभिन्न विधाओं पर अब तक करीब 30 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, ‘कुरुक्षेत्र के कगार पर’ इनका नवप्रकाशित निबंध संकलन है। ‘कुरुक्षेत्र के कगार पर’ इनकी पुस्तक भी अंधविश्वास, असमानता की दीवारों को तोड़ते हुए समाज को झकझोरने का काम करती है। पुस्तक में शामिल किए गए निबंध सांस्कृतिक, ऐतिहासिक व आत्माभिव्यंजक निबंध हैं।

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लेखक ने पुस्तक को तीन खंडों में बांटा है। प्रथम खंड ‘इतिहास एवं संस्कृति’ में ग्यारह निबंध हैं, दूसरा खंड ‘राजनीति एवं लोकतंत्र’ में भी ग्यारह तथा तीसरा खंड ‘समाज और साहित्य’ में भी ग्यारह निबंध हैं। अंत में परिशिष्ट भाग में दो निबंध हैं। लेखक ने इन निबंधों के हर उस वर्ग का खुलकर विरोध किया जिस वर्ग ने समाज को बांटा या शोषण किया, वह चाहे मनुष्य जाति का कोई वर्ग हो या देवों का।

लेखक लिखते हैं कि आज की यही स्थिति है, बेशक लोग बदल गए हों, वर्गों में उतार-चढ़ाव आया हो, किन्तु जिनके हाथ में ताकत है वे केवल अपनी सोचते हैं। जिस प्रकार से देवों को स्वर्ग-प्राप्ति की लगन लगी हुई थी, उसी भांति आज के राजनेताओं को एकमात्र लक्ष्मी की लगन लगी हुई है। सेवा और साधन का स्थान अब सुख-सामग्री ने ले लिया है। त्याग को त्यागकर अब उनका लक्ष्य इन्द्रासीन की प्राप्ति मात्र ही है। सभी को हवाला की हवा लगी हुई है। घोटालों का घालमेल भी जारी है। आठवां अध्याय ‘बहता पानी निर्मला’ में लेखक संस्कृत व लोक भाषाओं की कुछ मान्यताओं की कड़ी खोलते नजर आते हैं।

जातिवाद की भावना किसी भी राष्ट्र के लिए घातक होती है, लेखक का मानना है कि -आज आवश्यकता इस बात की है कि हम प्रत्येक क्षेत्र में स्वतंत्रता और समानता के महान मूल्यों की स्थापना करें। व्यक्ति-विवेक की बाती को न बुझने दें। सबकी सर्वागीण स्वतंत्रता को स्वीकार करें।

लेखक का कहना है कि भौतिक साधन जुटाने के चक्कर में हमने अनावश्यक व्यस्तता, तनाव, बीमारियों को पाल लिया है। हम प्रकृति के अद्भुत, अनुपम सौंदर्य को खो दिया है। हमने अपनी परंपराओं को भुला दिया है। बसंत की मनोरमता को अपने जीवन से बाहर कर दिया है। जो किसी भी सूरत में बेहतर नहीं है।

पुस्तक : कुरुक्षेत्र के कगार पर लेखक : डॉ. धर्मचन्द्र विद्यालंकार प्रकाशक : अनीता पब्लिशिंग हाउस, गाजियाबाद पृष्ठ : 184 मूल्य : रु. 550.

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