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ख़ामोश निगाह

कविताएं
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अनुभूति गुप्ता

तुम्हारी गुफ़ा जैसी ख़ामोश निगाह

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नए-नए अंदाज़ खोलती है।

क्या मालूम है तुमको—

सांझ के ढलने पर देह का ढल जाना,

या रात्रि में चांद का क़रीब आना।

पेड़ों पर उगना ख़याल का,

छत पर लगते मकड़ी के जाल का।

यह हरे-हरे पत्तों पर

बारिश की बूंद का ठहरना,

यह डालियों का इठलाना,

यह दरख़्त का फलदार हो जाना,

यह इश्क़ में चंद शब्दों का

असरदार हो पाना।

तुमको पता नहीं है कि

कितना मुश्किल है

तंज भरे शब्दों में इश्क़ खोजना,

भारी पलकों पर अश्रुओं का पिरोना,

सिरहाने तकिए के रोना।

तुमको पता नहीं है सच में—इश्क़ होना।

प्रेम में जि़द

तुमसे प्रेम में एक जि़द थी—

कभी भोर के उगने की,

कभी दुपहरी के खिलने की,

कभी सांझ के डूबने की,

तो रात्रि के ठहरने की;

उत्सुकता गहरी थी

तुम मुझ तक आते गए,

गहराते अंधकार में

उज्ज्वलता का संदेश लाते रहे।

तुमको पाना जरूरी न लगा,

क्योंकि कभी खोने का अहसास न रहा।

तुमसे प्रेम में एक जि़द थी—

कभी रूठने, कभी मनाने की।

तकिए पर तमाम हिचकियां

और विरह की कोमल सिसकियां

मन को थोड़े से बहुत कुछ

बतला देती थीं।

तुम और यह प्रेम अमर था,

बाकी सभी उन अक्षरों की भांति—

जिन्हें नींद में भी

कभी कहीं त्यागा नहीं गया।

पर्ची

एक पर्ची पर लिखा था

‘अस्तित्व’,

मैंने मां को लिख दिया...!

दूसरी पर्ची पर लिखा था

‘व्यक्तित्व’,

मैंने पिता को लिख दिया...!

तीसरी पर्ची पर लिखा था

‘कीमत’,

मैंने घर को लिख दिया...!

चौथी पर्ची कुछ द्वंद्व से भरी थी—

‘संघर्ष’,

मैंने आईना लिख दिया...!

आखिरी पर्ची पर लिखा था

‘फ़ैसला’,

मैंने स्त्री लिख दिया..!

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