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भीड़ से अलग धारदार व्यंग्य

पुस्तक समीक्षा
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अशोक गौतम

व्यंग्यकारों की भीड़ में अकेले चलने वाले डॉ. प्रदीप उपाध्याय जो मौसमी भावनाएं, सठियाने की दहलीज पर, बतोलेबाजी का ठप्पा, बचके रहना रे बाबा, मैं ऐसा क्यों हूं! प्रयोग जारी है, ये दुनिया वाले पूछेंगे, व्यंग्य की तिरपाल सरीखे व्यंग्य संग्रहों के माध्यम से व्यंग्य के सशक्त हस्ताक्षर बन कर उभरे हैं, का नया व्यंग्य संग्रह ‘ढाई आखर सत्ता के’ पाठकों के बीच दस्तक दे चुका है। इस व्यंग्य संग्रह ने एक बार फिर साफ कर दिया है कि डॉ. प्रदीप उपाध्याय शौकिया नहीं लिखते, वे मात्र व्यंग्य के लिए व्यंग्य नहीं लिखते अपितु समाज में वैचारिक अलख जगाने के लिए व्यंग्य लिखते हैं। उनके लेखन के व्यक्तिगत नहीं, सामाजिक सरोकार होते हैं। वे मानते हैं कि जहां एक ओर बेहतर लेखन अपनी बात और उसमें निहित संदेश को पाठकों तक पहुंचाने का माध्यम होता है तो दूसरी ओर बिना किसी नाम, पुरस्कार, सम्मान की चाहत के आत्मसंतोष का महामंत्र भी।

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बहरहाल, उनका व्यंग्य संग्रह ‘ढाई आखर सत्ता के’ भी पूर्व के व्यंग्य संग्रहों की तरह अधपके व्यंग्यों का संग्रह न होकर पूर्व के व्यंग्य संग्रहों से और परिपक्व व्यंग्यों का संग्रह है। इस व्यंग्य संग्रह की भाषिक संरचना, शिल्प और संवेदना, विट, आयरनी की भट्टी में पूरी तरह से पके हुए हैं। संग्रह के व्यंग्यों को रचते हुए उनकी यह कोशिश साफ-साफ देखी जा सकती है कि पाठकों को उनके व्यंग्यों में से गुजरते हुए कहीं से भी रत्ती भर भी ऐसा न लगे कि व्यंग्यकार व्यंग्य के नाम पर उनसे धोखाधड़ी कर रहा है। ऐसे में भले मानस व्यंग्यकार का नैतिक दायित्व हो जाता है कि वह भी अपने पाठकों को पूरी तरह पके व्यंग्य ही परोस व्यंग्य विधा पर से पाठकों का भरोसा न उठने दे।

चलो सच झूठ का फैसला करें, गंभीर मुद्दे पर गंभीर कार्रवाई, आटे में नमक की पड़ताल, उजले अवसर की तलाश में, मलाई की चाह के मारे, महकता इत्र बहकता आदमी, खुलती फाइलें, बिगड़ते तेवर, रास्ते में होने का मतलब, ढाई आखर सत्ता के सहित इस व्यंग्य संग्रह में ऐसे ही अट्ठावन व्यंग्य हैं जो किसी न किसी कोण से पाठकों से सार्थक संवाद करते हैं।

पुस्तक : ढाई आखर सत्ता के व्यंग्यकार : डॉ. प्रदीप उपाध्याय प्रकाशक : रुद्रादित्य प्रकाशन, प्रयागराज पृष्ठ : 125 मूल्य : रु. 195.

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