शील कौशिक
संवेदनशील, अनुभवी कवयित्री जीवन के विराट अनुभव क्षेत्रों से विषय चुन-बीन कर ‘अधूरा ख़त’ कविता संग्रह के माध्यम से हमारे बीच उपस्थित हुई हैं। जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं व स्थितियों से बड़े-बड़े अर्थ पैदा करती कविताएं जीवन, समाज के सभी वर्गों की विसंगतियों को उजागर करती हैं। शोषित व वंचित वर्ग के साथ कवयित्री शिद्दत से खड़ी है। इनके प्रति कवयित्री की सहानुभूति उमड़-उमड़ कर आती है, इनके सुख-दुख की परछाइयां कविताओं में अंकित हैं।
विसंगतियों की तह में उतरकर कोरोना की भयावहता को लेकर बहुत-सी कविताएं इस संग्रह में सम्मिलित हैं, जो उस त्रासद समय को कविताओं के माध्यम से हमारे समक्ष पुन: ला खड़ा करती हैं।
भोगवादी प्रवृत्ति के कारण ‘कहां आ गए हम?’ कविता में मानवीयमूल्यों का क्षरण लोकहित के स्थान पर/ लोक के अमंगल की कामना/ करता मानव… कहां ले जाएगा समाज को? यक्ष प्रश्न मुंह बाए खड़ा है।
कवयित्री ने पर्यावरण, नारी, मां, जीवन, हिंदी जैसे अनेक विषयों पर कविताएं लिखी हैं। मां के विषय में कवयित्री का कहना है :-
मां को व्यक्त करने में/ पड़ जाता ताला/ तुषारापात हो जाता है बुद्धि पर/ मर्मों के पायदान/ पड़ जाते हैं अधूरे/ क्योंकि वह तो ममता की मूरत है/ ईश की प्रतिकृति है।
वर्तमान में स्वार्थ भरे, छद्म मानसिकता वाले मनुष्य पर व्यंग्य करते हुए ‘तलाश विश्वास की’ कविता की पंक्तियाें में :-
छल कपट से/ अंकुरित स्वार्थ/ चाट रहा विश्वास को/ चलो एक बार फिर करें प्रयास/ अमानव मन में/ मानवता ढूंढ़ने का।’
‘दिल’ कविता में खूबसूरती से दिल की बनावट का जिक्र करते हुए पंक्तियां हैं :-
बहुमंजिला इमारत-सा/ हर कमरा/ अंदर से बंद/ हर कमरे में एक समंदर/ मेरे मन के अंदर।
इसी प्रकार शीर्ष कविता ‘अधूरा ख़त’ की पंक्तियां अवलोकनार्थ हैं :-
सिर्फ मैं हूं/ और शब्दों में/ तुमने कल्पना की थी/ तुम्हीं से अथ/ तुम्हीं से इति/ हमेशा साथ मेरे/ किंतु… ऐसा कुछ नहीं हुआ/ तुम्हें पता था/ तभी तो/ एक बड़ा हिस्सा/ ख़त का खाली था…।
कलेवर में मुक्त छंद इन कविताओं का मूल भाव कथ्य में निहित है। सद्य: संप्रेषण इन कविताओं की ताकत है।
पुस्तक : अधूरा ख़त कवयित्री : डॉ. (श्रीमती) कंचना सक्सेना प्रकाशक : साहित्यागार, जयपुर पृष्ठ : 151 मूल्य : रु. 250.