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मन की संवेदना और मिट्टी की महक

पुस्तक समीक्षा
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अनेक पुरस्कारों से सम्मानित, हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘आधा सुख’ जैसे बहुचर्चित कहानी-संग्रह के रचनाकार (स्व.) विजय सहगल समकालीन हिन्दी कहानी के परिप्रेक्ष्य में अपनी सक्रिय उपस्थिति का निरंतर अहसास कराते रहेंगे। ‘वीर प्रताप’ के उपसंपादक पद से लेकर ‘दैनिक ट्रिब्यून’ के संपादक पद तक का विजय सहगल का सफर, साहित्य और पत्रकारिता दोनों में उनकी जुझारू शिरकत को रेखांकित करता है।

उनकी कहानियां अपने समवेत पाठ में सांस्कृतिक चेतना की संवाहक बनकर उभरती हैं। विजय सहगल की कहानियों में एक विशिष्ट सांस्कृतिक चेतना स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

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(स्व.) विजय सहगल के सुपुत्र विपुल सहगल एवं परिवारजनों के सौजन्य से हाल ही में प्रकाशित कहानी-संग्रह ‘आधा सुख’ में कुल 14 कहानियां संगृहीत हैं, जो इस प्रकार हैं—‘बिना पलक की मछलियां’, ‘खाली मेहराब’, ‘इंग्लैंड से वापसी’, ‘उमस’, ‘रमज़ान मियां’, ‘अपने लोग’, ‘नरभक्षी’, ‘दलदल’, ‘विरासत’, ‘ओहदे का बोझ’, ‘दायरे’, ‘मातादीन अब नहीं है’, ‘आधा सुख’ और ‘मृग-छाया’।

कथा-रस में पगी ये कहानियां लेखक के धूप-छांव से भरे जीवनानुभवों का निचोड़ हैं। ये कहानियां रास्ते चलते जन्म लेती हैं और बतकही वाले दृश्य विशेष रूप से प्रभावशाली हैं। सुबाथू छावनी का परिवेश इन कहानियों में प्राणतत्त्व बनकर उभरा है।

यह भी कहा जा सकता है कि उनका लेखन मिट्टी की गंध से गहराई से जुड़ा हुआ है। ऊपर से देखने पर इन कहानियों का स्थानिक संदर्भ भले ही महानगरीय प्रतीत हो, किंतु इनकी आत्मा देहात की सौंधी महक से सराबोर है।

संग्रह की शीर्षक-कहानी ‘आधा सुख’ अपने समय की एक बहुचर्चित कहानी है। इसमें सविता के पापा कमेटी से रिटायर हो चुके हैं और अब मात्र तीन सौ रुपये पेंशन पाते हैं, जिससे डेढ़ कमरे वाले मकान का किराया भी पूरा नहीं होता। सविता एक प्राइवेट कंपनी में टाइपिस्ट है और सात-आठ सौ रुपये कमाती है। वह मानती है कि जो कुछ भी वह कर पाई है, वह अपने पापा की वजह से ही संभव हुआ है।

अब पापा की चिंता सविता के विवाह की है। लेकिन जब सविता एक दिन अपने दफ्तर के अधेड़ और आधे-अफसर किस्म के सहकर्मी कुंदन से विवाह का तार पापा को भेजती है, तो यह सूचना पापा की चेतना पर हथौड़े की तरह प्रहार करती है। वे हर शाम पांच बजे बेटी के इंतजार के ‘आधे सुख’ से भी वंचित हो गए हों। निम्न-मध्यवर्गीय परिवार के पिता की यह बेबसी और निरीहता पाठक के मन में गहरी संवेदना और उद्वेलन जगाती है।

हर रचनाकार की अपनी विशिष्ट शैली और जीवन के प्रति एक दृष्टिकोण होता है, जिसकी अभिव्यक्ति वह अपनी रचनाओं—चाहे कविता, कहानी अथवा उपन्यास—के माध्यम से करता है। विजय सहगल ने सायास अथवा अनायास सामान्य जनों को ही अपनी कहानियों का पात्र बनाया है। जैसे उनकी कहानी ‘विरासत’ का सूबासिंह, जो एक पुरानी टैक्सी का ड्राइवर है, लेकिन शहर की ज़िंदगी उसी टैक्सी और सूबासिंह के इर्द-गिर्द घूमती है।

‘दलदल’ कहानी में रोहित घर की परिस्थिति रूपी दलदल में फंसा है, जबकि उसके बाबा की यह शिकायत है कि ‘रोहित की हमने शादी क्या की, हमारे लिए तो वह पराया हो गया।’ यह कहानी अपने कथन-शैली (नरेशन) से पाठक को बांधे रखती है। रोहित, बीना और अपने माता-पिता के बीच की दलदल से निकलने के लिए कोई रास्ता नहीं देख पाता।

पहाड़ी परिवेश का जीवंत चित्रण विजय सहगल की कहानियों की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि कही जा सकती है। उनकी ‘रमज़ान मियां’ और ‘मातादीन अब नहीं है’ जैसी कहानियां उनकी ‘आंखिन देखी’ यानी प्रत्यक्ष अनुभव का परिणाम हैं।

‘बिना पलक की मछलियां’ मुम्बई जैसे महानगर में दूरदराज़ के कस्बों और शहरों से रोज़ी-रोटी की तलाश में आए लोगों की ज़िंदगी का सजीव चित्र प्रस्तुत करती है। यह कहानी लेखक की प्रत्यक्ष दृष्टि का परिणाम प्रतीत होती है। मुम्बई की ज़िंदगी के आरपार लेखक की यह टिप्पणी एक मार्मिक कटाक्ष बन जाती है—’सुमंत, बंबई वालों के दिल में जगह हो सकती है, मकान में नहीं।’

(स्व.) विजय सहगल के बहुचर्चित कहानी-संग्रह ‘आधा सुख’ का पुनर्प्रकाशन निःसंदेह स्वागतयोग्य है।

यह भी सच है कि ‘आधा सुख’ की वजह से विजय सहगल सदैव स्मरण किए जाते रहेंगे। किंतु उनका रचना-संसार अभी भी पूर्ण रूप से प्रकाशित नहीं हुआ है। वे अपने अंतिम दिनों में एक नए कहानी-संग्रह की पांडुलिपि तैयार कर रहे थे। एक उपन्यास ‘उसका आदमी’ की पांडुलिपि भी उनके पास सुरक्षित थी, जिसे वे समय-समय पर प्रकाशित कराने की बात करते रहते थे। उनका एक यात्रावृत्त ‘आस्था की डगर पर’ दैनिक ट्रिब्यून में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ था। एक अन्य उपन्यास ‘बादलों के साए’ वर्ष 1968 में दैनिक वीर प्रताप में धारावाहिक रूप में छपा था, परंतु वह भी पुस्तक रूप में अभी तक प्रकाशित नहीं हो सका है।

पुस्तक : आधा सुख कथाकार : विजय सहगल प्रकाशक : विपुल सहगल पृष्ठ : 113

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