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लोकतांत्रिक महाकुंभ की त्रिवेणी में लुप्त विवेक की सरस्वती

नरेश कौशल लोकतंत्र के इस महाकुंभ का सबसे बड़ा सवाल यही है कि सत्ता की गंगा और विपक्ष की यमुना की उपस्थिति के बीच क्या विवेकशीलता की सरस्वती मौजूद है... जिस कर्मपथ पर आज देश की तरक्की, उपलब्धि व विकास...
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नरेश कौशल

लोकतंत्र के इस महाकुंभ का सबसे बड़ा सवाल यही है कि सत्ता की गंगा और विपक्ष की यमुना की उपस्थिति के बीच क्या विवेकशीलता की सरस्वती मौजूद है... जिस कर्मपथ पर आज देश की तरक्की, उपलब्धि व विकास की इबारत लिखने वाली झांकियां हैं, कुछ दिनों बाद दिल्ली विधानसभा चुनावों को लेकर ताल ठोकते नेता नजर आएंगे। प्रलोभनों व बरगलाने वाले हथकंडों की झांकी होगी।

यह सुखदकारी संयोग ही है कि एक तरफ देश आध्यात्मिक महाकुंभ में पुण्य की आशा में गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम में डुबकी लगा रहा है तो दूसरी तरफ देशवासी लोकतंत्र के महाकुंभ गणतंत्र दिवस पर कर्मपथ पर डुबकी लगा रहे हैं। एक तरफ लौकिक तो दूसरी तरफ आलौकिक विश्वासों का पर्व है। मगर एक बात तो तय है कि हमारे लोकतंत्र के पर्व व त्योहार तभी तक सार्थक हैं जब तक हमारा गणतंत्र हमारी आकांक्षाओं की कसौटी पर चौबीस कैरट का खरा सोना साबित हो। आध्यात्मिक महाकुंभ में गंगा-जमुना का अस्तित्व तो नजर आता है, मगर सरस्वती अदृश्य है। सरस्वती को लेकर तमाम धारणाएं-कथाएं इतिहास के पन्नों, संस्कृति के आंचल और पुरातत्व के दस्तावेजों में दर्ज हैं। प्राच्य विद्या के प्रकांड विद्वान कहते हैं कि अदृश्य सरस्वती ज्ञान की देवी, विवेक का पर्याय है जो हमें धर्म व आध्यात्मिक दायित्व निभाने में विवेक के स्मरण पर बल देती हैं। ठीक इसी तरह हमारे लोकतंत्र के महाकुंभ में भी सत्ता की गंगा तो है, विपक्ष की जमुनी संस्कृति भी है, मगर गहराई से देखें कि इसमें धीरे-धीरे सरस्वती की अनदेखी की जा रही है। राजनीतिक विमर्श में विवेकशीलता से परहेज किया जा रहा है। राजनीतिक दलों की रीतियां, नीतियां वोट केंद्रित होती जा रही हैं। हर दल अपनी सुविधा का राजनीतिक विमर्श रच रहा है। इसमें गौर से देखें तो सिर्फ सत्ता केंद्रित राजनीतिक प्रचार को जगह दी जा रही है।

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देश के दिल दिल्ली में आज लोकतंत्र के महापर्व का महोत्सव है। कर्मपथ देशवासियों की आकांक्षाओं का प्रतीक है। विभिन्न राज्यों की झांकियां वहां की संस्कृति, भाषा, धर्म, विकास और ऐतिहासिक गौरव को दर्शा रही हैं। हमारी सेना व अन्य सुरक्षा बलों, पैरा मिलट्री फोर्सेज के जवान अपने अनुशासित कदमताल से देश को बता रहे हैं कि तुम फिक्र न करना, तुम्हारी सुरक्षा के लिये हम मुस्तैद हैं। सरकार के विभिन्न उपक्रमों की तरक्की की झांकियां हैं, इसरो की उपलब्धियां हैं। विज्ञान व मौसम विभाग की तरक्की की कहानी है। थल में आधुनिक हथियारों व टैंकों की धमक है तो आकाश में करतब दिखाते, गर्जना करते लड़ाकू हवाई जहाजों की उड़ानें हर देशवासी के मन में विश्वास भर देती हैं कि कोई हमारी सुरक्षा में हर वक्त मुस्तैद है।

मगर लोकतंत्र के इस महाकुंभ का सबसे बड़ा सवाल यही है कि सत्ता की गंगा और विपक्ष की यमुना की उपस्थिति के बीच क्या विवेकशीलता की सरस्वती मौजूद है... क्या सत्ताधीश समय के सवालों को संबोधित और हल कर रहे हैं... क्या हम आने वाले वर्षों में देश के सामने आने वाली चुनौतियों के मुकाबले को तैयार हैं... क्या उनकी प्राथमिकताएं बेरोजगारी, महंगाई व महिला सुरक्षा सुनिश्चित करना है...?

जिस कर्मपथ पर आज देश की तरक्की, उपलब्धि व विकास की इबारत लिखने वाली झांकियां हैं, कुछ दिनों बाद दिल्ली विधानसभा चुनावों को लेकर ताल ठोकते नेता नजर आएंगे। प्रलोभनों व बरगलाने वाले हथकंडों की झांकी होगी। नूरा कुश्ती होगी और पैसे का खेल होगा। पिछले कुछ सप्ताहों से देश की राजधानी दिल्ली में आरोप-प्रत्यारोपों का जो सिलसिला जारी है वह हमारे लोकतंत्र को शर्मसार करने वाला है। प्रत्यक्ष न सही, परोक्ष रूप से मतदाताओं को प्रलोभन देकर मतदान स्थल तक ले जाने का खेल खेला जा रहा है।

यहां सवाल यह है कि हमारे गणतंत्र के संविधान को अस्तित्व में आए पौन सदी हो गई है। संविधान लागू होने की हीरक जयंती मनाते देश में क्या राजनीतिक दलों के एजेंडे और रीति-नीतियां चूक गई हैं कि उन्हें मतदाताओं को लुभाने के लिये मुफ्त की अफीम पिलाने को मजबूर होना पड़ रहा है। क्या ये राजनेताओं की रीति-नीतियों की नाकामी है कि वे पौन सदी के बाद मतदाताओं को जाति, धर्म, क्षेत्रवाद के नाम पर बांटकर वोट हासिल करने का जुगाड़ कर रहे हैं। ये हमारे नीति-नियंताओं की नाकामी है कि स्वतंत्र भारत में हम मतदाताओं को इतना विवेकशील नहीं बना पाए कि देश हित में वे अपने विवेक से मतदान कर सकें। आखिर क्यों देश का मतदाता मुफ्त की बिजली, पानी, मुफ्त के बस का सफर आदि छोटे-छोटे लालचों में उलझकर वोट देने मतदान केंद्रों की तरफ बढ़ता है। मुफ्त की रेवड़ियां बांटा जाना इस बात का सबूत है कि राजनीतिक दलों को अपनी रीतियों-नीतियों पर भरोसा नहीं रहा जो उन्हें वोट दिलाने में सक्षम रहने वाली हैं।

देश के सामने बड़ा सवाल यह है कि तरक्की के तमाम दावों के बावजूद क्यों देश के अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देना पड़ रहा है। क्यों हम इन अस्सी करोड़ लोगों को अपने पैरों पर खड़ा नहीं कर पाए ताकि वे आत्मनिर्भर बन सकें। महिलाओं को नकदी देने का जो फैशन मध्यप्रदेश व महाराष्ट्र, झारखंड से शुरू हुआ, वह अब दिल्ली के विधानसभा चुनाव में भी मुख्य मुद्दा बन गया है। टैक्स देने वाले नागरिकों की कीमत पर मुफ्त बांटने की इजाजत सत्ताधीशों व राजनीतिक दलों को किसने दी...?

देश में ग्लोबलाइजेशन व उदारीकरण के बाद जो आर्थिक नीति अस्तित्व में आई है उसने अमीर व गरीब के बीच की खाई को और चौड़ा किया है। गरीब और गरीब व अमीर और अमीर होता जा रहा है। अमीरों के कर्जे माफ हो रहे हैं, टैक्सों में छूट दी जा रही है, लेकिन देश का अन्नदाता सड़कों पर उतरने को मजबूर है। उसे न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा देने के लिये सड़कों पर संघर्ष करना पड़ रहा है। सरकारें लोककल्याण के सिद्धांतों के बजाय इवेंट मैनेजमेंट के सिद्धांतों पर चल रही है। फलतः लोककल्याण के लक्ष्य पूरे नहीं हो रहे हैं। रीतियों-नीतियों में सरकारों की विवेकशीलता नजर नहीं आती। सत्ताधीश ही नहीं, विपक्ष भी अपने दायित्वों को अंजाम नहीं दे पा रहा है। दोनों ही लोकतांत्रिक मूल्यों की कसौटी पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं।

कहने को हमारा देश दुनिया में सबसे बड़ी युवा शक्ति का देश है। मगर सवाल यह है कि क्या हम हर हाथ को काम दे पा रहे हैं... क्यों देश के युवा अपने सपनों को साकार करने के लिये अमेरिका, कनाडा और यूरोपीय देशों में धक्का खा रहे हैं। क्यों युवा कबूतरबाजों के चंगुल में फंसकर अपना जीवन जोखिम में डाल रहे हैं। क्यों देश के रोजगार तलाश रहे आईटी सक्षम युवाओं को म्यांमार व पूर्वी एशिया के देशों में साइबर अपराधियों के चंगुल में फंसना पड़ रहा है... क्यों रोजगार के लिये युवाओं को युद्धरत इस्राइल में श्रमिक का कार्य करने के लिये जाना पड़ रहा है। वे देश के दुश्मन कौन थे जो बेरोजगार युवाओं को रोजगार का झांसा देकर युद्धरत रूस की सेना में भर्ती करा आए, जिसमें एक दर्जन युवा अपनी जान गंवा चुके हैं...? सवाल संविधान को शीश लगाने का नहीं है। सवाल संविधान के लक्ष्यों को जमीनी हकीकत बनाने का भी है।

पक्की बात है कि देश का गणतंत्र दिवस मनाना तभी सार्थक माना जाएगा जब हम हर हाथ को काम दे सकेंगे। जब हम महंगाई, बेरोजगारी, आर्थिक असमानता को दूर कर सकेंगे। देश में समता, ममता और न्याय का सुशासन स्थापित कर सकेंगे। अन्यथा यह पर्व महज कर्मपथ पर एक औपचारिकता बनकर रह जाएगा।

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