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मुर्गे

लघुकथा
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कमल चोपड़ा

माहौल गर्म हो गया था। टी.वी. पर गर्मा-गर्म बहस चल रही थी। उस दुकान पर चाय पी रहे लोगों में भी बहस होने लगी।

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‘राष्ट्रभक्त पार्टी के तुम्हारे भैया जी पिछले चुनाव में तो देशभक्त पार्टी से खड़े हुए थे। दल-बदल कर इस बार राष्ट्रभक्त पार्टी से खड़े हुए थे। दल-बदलू है?’

‘और तुम्हारे नेताजी भी तो पिछले चुनाव में राष्ट्रभक्त पार्टी से खड़े हुए थे। दल-बदल कर देशभक्त पार्टी में आ गये हैं। इस बार चुनावों में कैसे उसी राष्ट्र भक्त पार्टी को गालियां दे रहे थे? मौका परस्त हैं...।’

‘तुम्हारे भैया जी का तो कोई दीन-ईमान ही नहीं...।’

‘और तुम्हारे नेताजी जिधर की हवा देखी उधर चल दिये?’

तकरार बढ़ती जा रही थी। वे बटेर, कबूतर और मुर्गों में बदल गये थे। नौबत हाथा-पाई और मार-पिटाई आई पर आ गई। किसी का सिर फूटा, किसी की टांग...? पुलिस ने आकर उन्हें ले जाकर थाने में बिठा दिया। वे एकाएक ठंडे पड़ने लगे। थानेदार कड़कड़ाया। मार-पिटाई का केस बनेगा? मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जायेगा? जमानतें होंगी फिर केस चलेगा? बिना कुछ लिये-दिये वे वहां से नहीं छुट पायेंगे उन्हें पता था।

उनमें से कुछ अपने-अपने नेताओं को बुलाने दौड़े। अब वे ही उन्हें छुड़वा सकते हैं। आखिर चुनाव में हमने भी उन्हें जिताने के लिए दिन-रात मेहनत की थी। बुलाने गये बंदों ने लौटकर बताया। हम यहां लड़ रहे हैं। उधर नेताजी की लड़की की शादी भैया जी के लड़के के साथ हो रही है। वे सब लोग तो ग्रांड होटल गये हुए हैं।

रिश्ता तो चुनावों से पहले ही हुआ था। चुनावों में दोनों कैसे एक-दूसरे को पानी पी-पी कर कोस रहे थे?

आज ग्रांड होटल में शादी का जश्न मना रहे हैं और इधर हम...?

अब थाने में कुछ चढ़ावा-चढ़ाने के सिवाय उनके पास कोई चारा नहीं था।

थाने से लुट-पिट कर घर लौटते हुए वे बटेर, कबूतर और मुर्गों की तरह फड़फड़ा रहे थे। उन्हें अपने-अपने घर की बदहाली याद आने लगी थी। और जख्म टीसने लगे थे।

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